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गाथा २८-३१ ]
पदम महाहियारो
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अर्थ :- मंगलरूप पर्यायोंसे परिगत शुद्ध जीवद्रव्य भावमंगल है। यही भावमंगल मास्त्र के श्रादि, मध्य और अन्तमें पढ़ा गया है ( करना चाहिए ) || २७ ॥
मंगलाचरण
आदि, मध्य और अन्त भेद
पुब्बिल्ला इरिएहि उत्तो सत्थान मंगलं जो' सो ।
आइसि मज्भ - श्रवसाणएसु पियमेण काययो ||२८||
अर्थ :- शास्त्रोंके आदि, मध्य और अन्तमें मंगल अवश्य करना चाहिए, ऐसा पूर्वाचार्यांने कहा है ॥२८॥
श्रदि, मध्य और अन्त मंगलको सार्थकता
पढने मंगल- करणे सिस्सा सत्यस्स पारगा होंति ।
मम्मे णीविग्धं विज्जा बिज्जाफलं चरिमे ॥ २६ ॥
अर्थ :- शास्त्र आदिमें मंगल करने पर शिष्यजन ( शास्त्रके ) पारगामी होते हैं, मध्य में मंगल करने पर विद्याकी प्राप्ति निर्विघ्न होती है और ग्रन्तमें मंगल करने पर विद्याका फल प्राप्त होता है || २९ ॥
जिननाम - ग्रहणका फल
नासदि विग्धं भेदवि यंहो दुट्ठा सुरा' ण संघंति । इट्टो प्रत्थो लग्भइ जिण-नामग्गहण मेतेण ॥ ३० ॥
अर्थ :- जिनेन्द्र भगवान् का नाम लेने मात्रसे विघ्न नष्ट हो जाते हैं, पाप खण्डित हो जाते हैं, दुष्ट देव ( असुर ) लांघते नहीं हैं, श्रर्थात् किसी प्रकारका उपद्रव नहीं करते और इट अर्थको प्राप्ति होती है ||३०||
ग्रन्थ में मंगलका प्रयोजन
सत्थादि - मज्भ- श्रवसाणएसु जिण थोत्त मंगलुग्धोसो । णास जिस्सेसाई विग्धाई रवि थ्व तिमिराई ॥ ३१ ॥
|| इदि मंगलं गदं ॥
१. द. ब. संठाणुमंगलं घोसो | २. द. ज. क. उ. वय । ३. द. खुट्टासुतारण, दुट्टासुवाण, क. ज. ठट्ठाता । ४. द. ब. क. जं. ठ. लद्धो ।