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निलोयपत्ती
| गाथा : ३२-३५ प्रर्थ : .. शास्त्रके आदि, मध्य और अन्तमें जिन-स्तोत्ररूप मंगलका उच्चारण सम्पूर्ण विघ्नोंको उसी प्रकार नष्ट कर देता है जिस प्रकार सूर्य अंधकारको (नष्ट कर देता है) ॥३१॥
। इस प्रकार मंगलका कथन समाप्त हुआ ।
___ ग्रन्थ-अवतार-निमित्त विविह-वियप्पं लोयं बहुभेय-णयप्पमाणदो' भव्या ।
जाणंति ति णिमित्तं कहिवं गंथावतारस्स ॥३२॥
माय :-नाना भेदरूप लोकको भव्य जीव अनेक प्रकारके नय और प्रमागोंसे जानें, यह त्रिलोकप्रज्ञप्तिरूप ग्रन्थ के अवतारका निमित्त कहा गया है ।।३२।।
केवलणाण-दिवायर-किरणकलावादु एत्थ अवदारो' ।
गणहरदेवेहि' गंथुप्पत्ति हु सोहं त्ति संजादो ॥३३॥
अर्थ :-केवलज्ञानरूपी सूर्यकी किरणोंके समूहसे श्रुतके अर्थका अवतार हुअा तथा गणधरदेवके द्वारा ग्रन्थ की उत्पत्ति हुई । यह श्रुत कल्याणकारी है ।।३३।।
छहव्व-णव-पयत्थे सुदणाणं दुमणि-किरण-सत्तीए । देवखंतु भव्य-जीवा अण्णाण-तमेण संछण्णा ॥३४।।
॥ खिमित्तं गवं ।। अर्थ :- अज्ञानरूपी अँधेरेसे प्राच्छादित हुए भव्य जीव श्रुतज्ञानरूपी सूर्यकी किरणोंकी शक्तिसे छह द्रव्य और नव-पदार्थो को देखें ( यही ग्रन्थावतारका निमित्त है ) ॥३४।।
। इस प्रकार निमित्तका कथन समाप्त हुना।
हेतु एवं उसके भेद दुविहो हवेदि हेडू तिलोयपणत्ति-गंथप्रज्झयणे ।
जिणवर-वयणुट्टिो पच्चक्ख-परोक्ख-भेएहि ॥३५॥
अर्थ :-त्रिलोकप्रज्ञप्ति ग्रन्थके अध्ययनमें जिनेन्द्रदेबके बचनोंसे उपदिष्ट हेतु, प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदगे दो प्रकारका है ।। ३५।।
१. द. ब. ज.फ. ठ. भेयपमारपदो। २. द. ज. के. ठ. अवहारो, न. अवहारे । ३. द. गणधरदेहें। ४. द. मोहंति संजादो, ब. सोहंति सो जानो। ५.ब. गंथयज्झयणो। .