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गाथा : ३६-४१११ ]
पढ़मो महाहियारो
प्रत्यक्ष हेतु सक्खा-पच्चक्ख-परंपच्चक्खा दोणि होति' पञ्चक्खा । अण्णाणस्स विणासं गाण-दिवायरस्स उप्पत्ती ॥३६।। देव-मणुस्सादीहिं संततमन्भच्चण-प्पयाराणि । पडिसमयमसंखेज्जय - गुणसेदि - कम्म - णिज्जरणं ॥३७।। इय सक्खा-पच्चक्खं पच्चक्ख-परंपरं च णादव्यं ।
सिस्स-पडिसिस्स-पहुदीहिं सददमब्भच्चण-पयारं ।।३।।
अर्थ :-प्रत्यक्ष हेतु, माक्षात् प्रत्यक्ष और परम्परा प्रत्यक्षके भेदमे दो प्रकारका है । अज्ञानका विनाश, ज्ञानरूपी दिवाकरकी उत्पत्ति, देव और मनुष्यादिकोंके द्वारा निरन्तर की जानेवाली विविधपकारको अभ्यर्चना (पूजा) और प्रत्येक समयमें असंख्यातगुणश्रेणीरूपसे होने वाली कर्मोकी निर्जरा साक्षात् प्रत्यक्ष हेतु है । शिष्य-प्रतिशिष्य आदिके द्वारा निरन्तर अनेक प्रकारसे की जानेवाली पूजाको परम्परा प्रत्यक्ष हेतु जानना चाहिए ।।३६-३८।।
___ परोक्ष हेतुके भेद एवं अभ्युदय सुखका वर्णन दो-भेदं च परोक्खं प्रभुदय-सोक्खाइं मोक्ख-सोक्खाई । सावादि-विविह-सु-पसत्थ -कम्म-तिक्ष्वाणुभाग-उदएहि ॥३६।। इंद-पडिद - दिगिदय - तेत्तीसामर- समाण - पहुदि - सुहं। राजाहिराज - महराज - अद्धमंडलिय - मंडलियाणं ॥४०॥
महमंडलियाणं अद्धचविक-चक्कहर-तिस्थयर-सोक्खं ।।४१.१।।
अर्थ :-परोक्ष हेतु भी दो प्रकारका है, एक अभ्युदय सुख और दूसरा मोक्षसुख । सातावेदनीय आदि विविध सुप्रशस्त कर्माके तीव्र अनुभागके उदयसे प्राप्त हुआ इन्द्र, प्रतीन्द्र, दिगिन्द्र (लोकपाल), श्रायस्त्रिश एवं सामानिक आदि देवोंका सुख तथा राजा, अधिराजा, महाराजा, अर्धमण्डलीक, मण्डलीक, महामण्डलीक, अर्धचक्री ( नारायण-प्रतिनारायण ), चक्रवर्ती और तीर्थकर इनका सुख अभ्युदय मुख है ।।३९-४१/१।।
१. द. होदि ।
२. क. ज. ठ. सुपरसस्थ ।
३. ब. तेत्तीससायरपमारण ।