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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा ४११२-४५ राजा का लक्षण अट्टारस-मेत्ताणं सामी-सेणीण' भत्ति-जुत्ताणं ।।४१/२।। वर-रयण-मउडधारी सेवयमाणाण बंछिदं अत्थं ।
देता हवेदि राजा जिवसत्त, समरसंघट्ट ॥४२।।
अर्थ : - भक्ति युक्त अठारह-प्रकारको श्रेणियोंका स्वामी, उत्कृष्ट रत्नोंके मुकुटको धारण करने वाला, सेवकजनोंको इच्छित पदार्थ प्रदान करनेवाला और समरके संघर्ष में शत्रुओंको जीतने वाला (व्यक्ति) राजा होता है ॥४१॥२-४२।।
अठारह-श्रेणियोंके नाम करि तुरय-रहाहिबई सेणवइ पदत्ति-सेट्ठि-दंडवई । सुद्दक्खत्तिय-वइसा हवंति तह महयरा पवरा ।।४३।। गणराय-मंति-तलवर-पुरोहियामसया महामसा ।। बहुविह-पइण्णया य अट्ठारस होति सेरणीयो' ।।४४।।
अर्थ :- हाथी, घोड़े और रथोंके अधिपति, सेनापति, पदाति (पादचारी सेना), श्रेष्ठि (सेठ), दण्डपति, शूद्र, क्षत्रिय, वैश्य, महत्तर, प्रवर ( ब्राह्मण ), गणमन्त्री, राजमन्त्री, तलवर (कोतवाल), पुरोहित, अमात्य और महामात्य एवं बहुत प्रकारके प्रकीर्णक, ऐसी अठारह प्रकारकी श्रेणियाँ होती हैं ।।४३-४४ ।।
अधिराज एवं महाराजका लक्षण पंचसय-राय-सामी अहिराजो होवि कित्ति-भरिद-दिसो ।
रायाण जो सहस्सं पालइ सो होदि महराजो ।।४५।।
अर्थ :-कीतिसे भारत दिशाओं वाला और पांच सौ राजाओंका स्वामी अधिराजा होता है और जो एक हजार राजाओं का पालन करता है वह महाराजा है ११४५।।
१. द. ब. सेणण।
२. द. ज. क. ठ, वंति दह मज', ब. वंति दह पट्ट।
३. द. ब. ज. क.
सेमोयो।