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तिलोयपती
गाथा : ३०-३२
अर्थ :- गोपुरद्वारोंसे युक्त और उपरिम भाग में जिनमन्दिरोंसे सहित वे वेदियाँ भवनवासी देवोंसे रक्षित होती हुई सुशोभित होती हैं ||२९||
दियो बाह्य स्थित चनोंका निर्देश
तब्बाहिरे सोयं सत्तच्छद - चंपयाय चूदवरणा । पुत्रादिसु णाणातरु-चेत्ता चिट्ठति चेत्त-तरू सहिया ||३०||
अर्थ : – वेदियोंके बाह्यभागमें चैत्यवृक्षोंसे सहित और अपने नाना वृक्षोंसे युक्त, (क्रमश:) पूर्वादि दिशाओं में पवित्र अशोक, सप्तच्छद, चम्पक और आम्रवन स्थित हैं ||३०||
चैत्यवृक्षों का वर्णन
चेत्तद्द म-थल-रुदं दोणि सया जोयणाणि पण्णासा । चत्तारो मज्झम्मि य अंते को सद्धमुच्छेहो ॥३१॥
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अर्थ :- चैत्यवृक्षोंके स्थलका विस्तार दोसो पचास योजन तथा ऊँचाई मध्य में चार योजन और अन्तमें अर्धकोस प्रमाण है ||३१||
छद्दो- सू-मुह-रुंदा चउ-जोयण- उच्छिवाणि पीठाणि । पीठोवरि बहुमज्भे रम्मा चेति चेत-दुमा ॥३२॥ जो ६ । २ । ४ ।
१. उपरोक्त चित्र प्रक्षेप रूप है एवं उसमें दिया हुआ प्रमाण स्केल रूप नहीं है । २. द. ब. क. ज. ठ. रुंदो ।