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गाथा : ३३-३६ ] तदियो महाहियारो
[ २७५ प्रर्ष:-पीठोंकी भूमिका विस्तार छह योजन, मुखका विस्तार दो योजन और ऊँचाई चार योजन है, इन पीठों के ऊपर बहुमध्यभागमें रमणीय चैत्यवृक्ष स्थित हैं ।॥३२॥
पत्तेक रुक्खाणं 'प्रवगाढं कोसमेक्कमुट्ठि । जोधग खंधुच्छही साहा-दोहत्तणं च चत्तारि ॥३३॥
को १ । जो १।४।। अर्थ :-प्रत्येक वृक्षका अवगाढ़ एक कोस, स्कन्धका उत्सेध एक योजन और शाखाओंकी लम्बाई चार योजन प्रमाण कही गयी है ।॥३३॥
विविह-वर-रयण-साहा विचित्त-कुसुमोवसोहिदा सच्चे । मरगयमय-वर-पत्ता दिव्य-तरू ते विरायंति ॥३४॥
अर्थ :-वे सब दिव्य वृक्ष विविध प्रकारके उत्तम रत्नोंको शाखामोंसे युक्त, विचित्र पुष्पोंसे अलंकृत और मरकत मणिमय उत्तम पत्रोंसे व्याप्त होते हुए अतिशय शोभाको प्राप्त हैं ॥३४॥
विविहंकुर चेचइया विविह-फला विविह-रयण-परिणामा । छत्तादी छत्त-जुदा घंटा-जालादि-रमणिज्जा ॥३५॥ प्रावि-णिहणेण हीणा पुढविमया सन्न-भवण-चेत्त-दुमा ।
जीवपत्ति"-लयाणं होति णिमित्तारिण ते णियमा' ॥३६॥ अर्थ : विविध प्रकारके अंकुरोंसे मण्डित अनेक प्रकारके फलोंसे युक्त, नाना प्रकारके रत्नोंसे निर्मित, छत्रके ऊपर छत्रसे संयुक्त, घण्टा-जालादिसे रमणीय और आदि-अन्तसे रहित, वे प्रथिवीके परिणाम स्वरूप सब भवनों के चैत्यवृक्ष नियमसे जीवोंकी उत्पत्ति और विनाशके निमित्त होते हैं ॥३५-३६॥
विशेषार्थ :---यहाँ चत्यवृक्षोंको 'नियमसे जीवोंकी उत्पत्ति और विनाशका कारण कहा गया है !' उसका अर्थ यह प्रतीत होता है कि-चैत्यवृक्ष अनादि-निधन हैं, अतः कभी उनका उत्पत्ति
१. ब, क. प्रवगाढ। २. न. को १ । जो ४। ३. द. ज. ठ. परिमाणा। ४. ६. ब. क. ज. ठ. जूदा । ५ द.व. ठ.जीहपति प्रायाणं, क. ज. जीऊरपति पापाणं। ६.द.ब.णिमायामा ।