________________
२५६ ]
ਵਿਹਾਰ ਦੀ
[ गाथा : ३३५-३३८
अर्थ :- पुनः जिनके सम्पूर्ण अंग भीषण अग्निकी ज्वाला समूहोंसे जल रहे हैं, ऐसे वे नारकी ( वृक्षोंकी) शीतल छाया जानकर असिपत्र वनमें प्रवेश करते हैं ||३३४ ॥१
तत्थ व विदिह तरूणं पवण हवा तव - पला-फल- पूजा । नियति तारा उवर दुष्पिच्छा वज्जदंडे व
अर्थ :- वहाँ पर भी विविध प्रकारके वृक्ष, गुच्छे, पत्र और फलोंके समूह पवनसे ताड़ित होकर उन नारकियों के ऊपर दुष्प्रेक्ष्य वज्रदण्ड के समान गिरते हैं ।। ३३५ ।।
।।३३५॥
चक्क - सर करणय-तोमर - मोग्गर- करवाल - कोंत- मुसलाणिं । अण्णाणि वि ताण सिरं प्रतिपत्त-वणादु निवति ॥ ३३६ ॥
अर्थ :- उस असिपत्र - वनसे चक्र, बाण, कनक ( शलाकाकार ज्योतिः पिंड ), तोमर ( बाण - विशेष ), मुदगर, तलवार, भाला, मूसल तथा अन्य और भी अस्त्र-शस्त्र उन नारकियोंके सिरोपर गिरते हैं ||३३६||
तवसम्म |
छिरण' - सिरा भिण्ण-करा 'तुडिवच्छा लंबमारण - श्रतचया ।
रुहिरारुरण घोरतणू णिस्सरस्या तं वणं पि मुचेति ॥ ३३७ ॥
अर्थ :- अनन्तर छिन्न सिरवाले, खण्डित हाथवाले व्यथित नेत्र-वाले, लटकती हुई प्रांतोंके समूहवाले और खूनसे लाल तथा भयानक वे नारकी प्रशारण होते हुए उस वनको भी छोड़ देत हैं ||३३७ ॥
गिद्धा गरुडा काया विहगा अवरे वि वज्जमय-तुडा | काढूण
खंड-खंड ताणंगं ताणि कवलंति ।। ३३८ ।
i
अर्थ :- गृद्ध, गरुड़, काक तथा और भी वज्रमय मुख ( चोंच ) वाले पक्षी नारकियों के शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके खा जाते हैं ।। ३३८ ॥
१. ब. क. ज. ठ. शिसिरा । २. द. ब. क. ज. य. बुदियंा ।
४. द खंडु-दंतारांग ब. क. ज. ठ. खडु-दंता तारांगं ।
३. द. व. क. ज. ठ.