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गाथा : ३३०-३३४ ]
विदु महाहियारो
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अर्थ :- उस वैतरणी नदीमें कर्तरी (कैची) के समान तीक्ष्ण जलके आकार परिणत हुए दूसरे नारकी उन नारकियों के शरीरों को अनेक प्रकारको दुस्सह पीड़ाओोंको पहुँचाते हुए छेदते हैं ||३२||
जलयर-कच्छव-मंडूक-मयर-पहूदीण विविह' -रुबधरा । प्रण्णोष्णं "भक्वंते वइतरिणि जलम्मि 'णारइया
॥३३०॥
अर्थ : तरणी नदी के जल में नारकी कछुआ, मेंढक और मगर यदि जलचर जीवोंके विविध रूप धारण कर एक दूसरेका भक्षण करते हैं ||३३०||
वइतरणी-सलिलादो णिस्सरिवा पय्वदं पलावंति । तस्सिहरमारुहंते तत्तो लोट्रुति श्रष्णोष्णं
गिरि-कंदरं विसंतो खज्जते वग्घ-सिंह, पहुबीहि । वज्जुक्कड - दाहि दारुण - दुक्खाणि
।।३३१॥
सहमाणा ॥ ३३२ ॥
अर्थ :-- ( पश्चात् ) वंतररणीके जलसे निकलते हुए (बे नारकी) पर्वत की ओर भागते हैं । वे उन पर्वतोंके शिखरोंपर चढ़ते हैं तथा वहाँ से एक दूसरेको गिराते हैं । ( इसप्रकार ) दारुण दुःखों को सहते हुए ( वे नारकी ) पर्वतकी गुफाओं में प्रवेश करते हैं। वहाँ वा सहरा प्रचण्ड दाड़ों वाले व्याघ्रों एवं सिंहों आदिके द्वारा खाये जाते हैं ।।३३१-३३२ ।।
विउल-सिला- विच्चाले बट्ठूण बिलाणि भत्ति पविसंति । तत्य वि विसाल - जालो उट्ठबि सहसा - महाश्रग्गी ॥३३३॥
अर्थ :- पश्चात् वे नारकी विस्तीर्णं शिलानोंके बीच में बिलोंको देखकर शीघ्र ही उनमें प्रवेश करते हैं परन्तु वहाँ पर भी सहसा विशाल ज्वालाओं वाली महान् अग्नि उठती है ।१३३३||
दारुण-हुदा स-जाला - मालाहिं दज्झमाण-सवंगा ।
सीवल छायं मणिय प्रसिपल वणम्मि पविसंति ॥ ३३४ ॥
१. द. विविसरूवचरा । २. द. भगवंता । ६. द. ब. क. ज. 5. जलचरंमि । ४. द. मंति ब. क. ज. ठ. जंति ।