________________
२५४ ]
तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : ३२५--३२६ अर्थ :-चिल्लाते हुए कितने ही नारकी जीव हजारों यंत्रों ( कोल्हुषों ) में तिलको तरह पेल दिए जाते हैं। दूसरे नारकी जीव वहींपर मारे जाते हैं और इतर नारकी विविध प्रकारोंसे छेदे जाते हैं ॥३२४।।
अण्णोणं बझते वज्जोयम-संखलाहिं थंभेसु ।
पज्जलिदम्मि हुदासे केई छुम्भंति दुप्पिच्छे ॥३२५॥ अर्थ :-कई नारकी परस्पर वज्रतुल्य सांकलों द्वारा खम्भोंसे बांधे जाते हैं और कई अत्यन्त जाज्वल्यमान दुष्प्रक्ष्य अग्निमें फेंके जाते हैं ।।३२।।
फालिज्जते केई दारुण-करवत्त-कंटन-मुहेहि ।
अण्णे भयंकरहिं विनंति विचित्त-भल्लेहिं ॥३२६॥
मय:-कई नारकी करोंत ( पारी ) के काँटोंके मुखोंसे फाड़े जाते हैं और इतर नारकी भयंकर और विचित्र भालोंसे बीधे जाते हैं ।।३२६।।
लोह-कडाहावटिव-तेल्ले तत्तम्मि के थि छुम्भंति । 'घेत्तूणं पच्चंते जलंत-जालुक्कडे जलणे ॥३२७॥
अर्थ:-कितने ही नारकी जीव लोहेके कड़ाहोंमें स्थित गरम तेल में फेंके जाते हैं और कितनेही जलती हुई ज्वालापोंसे उत्कट अग्निमें पकाये जाते हैं ।।३२७।।
इंगालजाल-मुम्मुर-अग्गी-दझंत-मह-सरीरा ते । सोदल-जल-मण्णता धाविय पविसति वइतरिणि ॥३२॥
अर्थ :- कोयले और उपलोंकी पागमें जलते हुए स्थूल शरीर वाले वे नारकी जीव शीतल जल समझते हुए वैतरिणी नदीमें दौड़कर प्रवेश करते है ॥३२८॥
कतरि-सलिलायारा णारइया तत्थ ताण अंगाणि । छिदति 'दुस्सहावो पावंता विविह-पोडापो ॥३२६॥
-
---
१. द, पुरूषां। २, द. दुस्सहावे ।