________________
विदुश्री महाहियारो
-' पक्खीणं ।
वय वग्ध-तरच्छ-सिगाल - साण-मज्जार-सोह - ' अष्णोष्णं च सया ते णिय-रिणय देहं विगुव्वंति ॥३२० ॥
गाथा : ३२०-३२४ ]
अर्थ :- नारकी जीव, चक्र, बाण, शूली, तोमर, मुद्गर, करौंत, भाला, सुई, मुसल और तलवार आदिक शस्त्रास्त्र रूप वन एवं पर्वतकी आाग रूप तथा भेड़िया, व्याघ्र, तरक्ष ( श्वापद), शृगाल, कुत्ता, बिलाव और सिंह श्रादि पशुओंों एवं पक्षियोंके समान परस्पर सदैव अपने-अपने शरीरकी विक्रिया किया करते हैं ।।३१९-३२०।।
गहिर - बिल - धूम - मारुद - प्रइतत्त कहल्लि - जंत- चुल्लीणं । कंड रि-पीस गि-दबीरग रूवमण्णे विकुति ॥३२१॥
अर्थ : श्रन्य नारकी जीव, गहरे बिल, धुआ, वायु, अत्यन्त तपे हुए खप्पर, यंत्र, चूल्हे, कण्डनी ( एक प्रकारका कूटने का उपकरण ), चक्की और दव ( ब ) श्राकाररूप अपने-अपने शरीरको विक्रिया करते हैं ।। ३२१ ।।
[ २५३
सूवर वणग्गि-सोणिव- किमि-सरि दह- कूय- "वाइ- पहुदीणं । पुह-पुहरूव-विहीणा णिय- णिय- देहं पकुब्वति ॥ ३२२ ॥
अर्थ :- नारकी जीव शूकर, दावानल तथा शोणित और कीडोंसे युक्त नदी, तालाब, कूप एवं बापी आदि रूप पृथक्-पृथक् रूपसे रहित अपने-अपने शरीर की विक्रिया करते हैं । तात्पर्य यह है कि नारकियों के पृथक् विक्रिया होती है, देवोंके सदृश उनके पृथक् विक्रिया नहीं होती ॥ ३२२ ॥
पेच्छ्रिय पलायमारणं णारइयं वग्घ-केसरि हुदी ।
वज्जमय - वियल-तोंडा "कत्थ वि भक्रांति रोसेण ॥ ३२३॥
म :- वज्रमय विकट मुखवाले व्याघ्र और सिंहादिक, पोछेको भागने वाले दूसरे नारकी को कहीं पर भी कोसे खा डालते हैं ।। ३२३॥
पोलिज्जते' केई जंत- सहस्सेहि विरस - तिलवंता ।
श्रपणे हम्मेति तहि अवरे छेज्जंति विविह भंगेहिं ॥ ३२४ ॥
१. द. ब. क. ज. ठ. पसू
२. द. अण्णा
।
५. द. सुडो खत्यवि । क. तोंडो कवि, ज. ठ. तोंड़े कवि ।
३. ब. जंतच्चूली । ४. द. कुववदि । ६. द. उ. पालिज्जते ।