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तिलोयपारणत्ती
[ गाथा : ३१६-३१६ पर्ष : नारकी जीव पापसे नरकबिल में उत्पन्न होकर और एक मुहूर्त मात्र कालमें छह पर्याप्तियोंको प्राप्त कर प्राकस्मिक भयसे युक्त होता है । भयसे कांपता हुआ बड़े कष्टसे चलनेके लिए प्रस्तुत होकर छत्तीस प्रायुधोंके मध्यमें गिरकर वहाँसे उछलता है ॥३१४-३१५॥
उच्छेह-जोयणाणि सत्त धणू छस्सहस्स-पंच-सया। उप्पलइ पढम-खेत्ते दुगुणं दुगुणं कमेण सेसेसु ॥३१६॥
। जो ७ । ध ६५०० ॥ अर्थ - पहली पृथ्वीमें जीव सात उत्सेध योजन और छह हजार, पांच सौ धनुष प्रमाण ऊँचा उछलता है, शेष पृथिवियोंमें उछलनेका प्रमाण क्रमश: उत्तरोत्तर दूना-दूना है ।।३१६||
विशेषार्थ :-धर्मा पृथ्वीके नारकी ७ उत्सेध योजन ३ कोस, वंशाके १५ योजन २१ कोस, मेधाके ३१ योजन १ कोस, अञ्जनाके ६२६ योजन, अरिष्टाके १२५ योजन, मघवीके २५० योजन और माघवी पृथ्वीके नारकी जीव ५०० योजन ऊँचे उछलते हैं।
वण मय-सिलिबं जह वग्धो तह पुराण-णेरइया । णव-णारयं णिसंसा णिन्भच्छता पधावति ॥३१७।।
अर्थ :-जैसे व्याघ्र, मृगशाबकको देखकर उस पर झपटता है, वैसे ही क्रूर पुराने नारकी नये नारकीको देखकर धमकाते हुए उसकी ओर दौड़ते हैं ॥३१७॥
साण-गरणा एक्केवके दुक्खं 'दावंति दारुण पयारं । तह अण्णोणं णिच्चं दुस्सह-पीडायो कुवंति ॥३१॥
अर्थ :-जिसप्रकार कुत्तोंके झुण्ड एक दूसरेको दारुण दुःख देते हैं उसीप्रकार वे नारकी भी नित्य ही परस्पर में एक दूसरे को असह्य रूपसे पीड़ित किया करते हैं ॥३१॥
चक्क-सर-सूल-तोमर-मोग्गर-करवत्त- कोंत-सूईणं । मुसलासि-पहुदीणं वण-णग-दावाणलादीरणं ॥३१॥
१.द, ब, क. ज. ठ. धावति ।
२. द. कुंत।
३. द. ब. का.ज.6. दावारणगादीरणं ।