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माया : १६५.१३ ।
मो महाहियारो ऊर्ध्वलोकके व्यासको वृद्धि हानिका प्रमाण अटु-गुणिदेग-सेढी उणवण्णहिदम्मि होदि जं लद्ध। स च्चेय' वहि-हारणी उवरिम-लोयस्स वासारणं ॥१६॥
अर्थ :- श्रेणी ( ७ राजू) को पाठसे गुणितकर उसमें ४६ का भाग देनेपर जो लब्ध भावे, उतना ऊर्च लोकके व्यासकी वृद्धि और हानिका प्रमाण है ।। १६५।।
यथा -श्रेणी-७४८=५६ । ५६:४६ = राजू क्षय-वृद्धिका प्रमाण । ऊर्वलोकके दश क्षेत्रोंके अधोभागका विस्तार एवं उसकी आकृति
रज्जूए सत्त-भागं इससु ठाणेसु ठाविवूण तको । सत्तोणवीस - इगितीस - पंचतीसेक्कतोसेहि ॥१६६।। 'सत्ताहियवीसेहि तेवीसेहि तहोणबीसेरण ।
पण्णरस वि सहि तम्मि हदे उवरि वासाणि ॥१६॥ 1xr७ | १६ । झ३१ । ४४३५ । ३१ । ४.२७ १ ४२३ | १६ | १५ | १७ ।
अर्थ :- राजूके सातवें भागको क्रमश: दस स्थानोंमें रखकर उसको सात, उन्नीस, इकतीस, पैंतीस, इकत्तीस, सत्ताईस, तेईस, उन्नीस, पन्द्रह और सात से गुणा करनेपर ऊपरके क्षेत्रोंका व्यास निकलता है ।। १६६-१६७।।
विशेषार्थ :-ऊर्बलोकके प्रारम्भसे लोक पर्यन्त क्षेत्रके दस भाग होते हैं । उन उपरिम दस क्षेत्रोंके अधोभागमें विस्तारका क्रम इसप्रकार है --
ब्रह्मलोक के समीप भूमि ५ राजू, मुख एक राजू और ऊँचाई ३३ राजू है तथा प्रथम युगलकी ऊँचाई १३ राजू है । भूमि ५ – १ मुख' = ४ राजू अवशेष रहे । जबकि ६ राजू ऊँचाई पर ४ राजूकी वृद्धि होती है, तब १३ राजू पर (¥xix )=१२ राजू वृद्धि प्राप्त हुई। प्रारम्भमें ऊर्वलोकका विस्तार एक राजू है, उसमें ११ राजू वृद्धि जोड़नेसे प्रथम युगलके समोपका व्यास (++33) राजू प्राप्त होता है। प्रथम युगलसे दूसरा युगल भी १३ राजू ऊँचा है अतः (+3), राजू ब्यास सानत्कुमार-माहेन्द्र स्वर्गके समीप है । यहाँसे ब्रह्मलोक : राजू ऊँचा
१. ब. क. सध्ने य। २. द, क. ज.ठ सत्तादिम, च, सत्तादिविसेदि।