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तिलोपणती
[ गाथा : १६३-१९४
ऊर्ध्वलोकका ऊपर एवं नीचे मुख एक राजू भूमि पाँच राजू और उत्सेध-भूमि से नीचे
"
३३ राजू तथा ऊपर भी ३३ राजू है ।
ऊर्ध्वलोकमें दश स्थानों के व्यासार्थ चय एवं गुणकारोंका प्रमारण
मुहादु भूमीदो । सत्त-परिहत्तं ॥ १६३ ॥
भूमीए मुहं सोहिय उच्छेह - हिवं स्वय- वड्ढीण पमाणं प्रड-रूवं
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अर्थ :- भूमिमेंसे मुखके प्रमाणको घटाकर शेष में ऊँचाईका भाग देनेपर जो लब्ध प्रावे, उतना प्रत्येक राजपर मुखकी अपेक्षा वृद्धि और भूमिकी अपेक्षा हानिका प्रमाण होता है । वह प्रमाण सातसे विभक्त आठ अंक मात्र अर्थात् प्राठ बटे सात राजू होता है ।।१९३।।
ऊर्ध्वलोक में भूमि ५ राजू, मुख एक राजू और ऊँचाई ३३ अर्थात् राजू है राजू प्रत्येक राजू पर वृद्धि और हानिका प्रमाण । व्यासका प्रमाण निकालनेका विधान
५ – १ = ४; ४ ÷ ५ =
तक्य- वड्ढि - पमाणं जिय-जिय-उदया-हदं जइच्छाए ।
हीरण भहिए संते वासारिण हवंति भू-मुहाहितो ॥१६४॥
अर्थ :- उस क्षय और वृद्धिके प्रमाणको इच्छानुसार अपनी-अपनी ऊँचाई से गुणा करने पर
जो कुछ गुणनफल प्राप्त हो उसे भूमिमें से घटा देने अथवा मुखमें जोड़ देनेपर विवक्षित स्थानमें व्यासका प्रमाण निकलता है ॥१६४॥
उदाहरण :- सानत्कुमार माहेन्द्र कल्पका विस्तार -
ऊँचाई ३ राजू, चय ु राजू और मुख १ राजू है । ३ तथा २४ + १ = भु अर्थात् ४ राजू दूसरे युगलका व्यास प्राप्त हुआ ।
भूमि अपेक्षा – दूसरे कल्पकी नीचाई ३ राजु, भूमि ५ और चय राजू है ३ × 1 ५ – ५४ = १ या अर्थात् ४३ राजू विस्तार प्राप्त हुआ ।
१ ब. सत्तपहिहत्य, द. ज. क. ठ. सत्तपविद्दत्थं ।