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गाथा : १६५-१६७ ] तदियो महाहियारो
[ ३२१ मिश्र ) तथा कामण इन ग्यारह योगोंसे, पुरुष और स्त्री वेदोंसे, सम्पूर्ण कषायोंसे परिपूर्ण, मति. श्रुत, अवधि, मतिप्रज्ञान, श्रुताज्ञान और विभंग, इन सभी छह ज्ञानोसे, सब असंयम, अचक्षु, चक्षु एवं अवधि इन तीन दर्शनोंसे, कृष्णा, नील, कापोत और पीतके मध्यम अंशोंसे, भव्य एवं अभव्य तथा प्रोपरामिक, वेदक, मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन पांचों सम्यक्त्वोंसे समन्वित होते हैं ।।१६०-१६४।।
सण्णी' य भवणदेवा हवंति पाहारिणो अणाहारा ।
सायार-अणायारा उवजोगा होंति सवाणं ॥१६॥
अर्थ :-भवनवासी देव संझो तथा पाहारक और अनाहारक होते हैं, इन सब देवोंके साकार ( ज्ञान ) और निराकार ( दर्शन ! ये दोनों ही उपयोग होते हैं ।१९५।।
मभिम-विसोहि-सहिदा उदयागद-सत्य- पगिदि-सत्तिगदा । एवं गुणठाणावी जुत्ता देवा व होति देयोप्रो ॥१६६॥
॥ गुणठाणादी समत्ता ! अर्थ :-बे देव मध्यम विशुद्धिसे सहित हैं और उदयमें पाई हुई प्रशस्त प्रकृतियोंकी अनुभाग-शक्तिको प्राप्त हैं । इसप्रकार गुणस्थानादिसे संयुक्त देवोंके सदृश देवियाँ भी होती हैं ॥१९६॥
गुणस्थानादिका वर्णन समाप्त हुया 1
एक समयमें उत्पत्ति एवं मरणका प्रमाण सेढी-प्रसंखभागो विदंगुल-पढम-बग्गमूल-हयो । भवणेसु एक्क-समए जायंति मरंति तम्मेत्ता ॥१९७।।
| जम्म-मरण-जीवाणं संखा समत्ता ॥ अर्थ :- घनांगुलके प्रथम वर्गमूलसे गुणित जमलेणीके असंख्यातवें-भाग प्रमाण जीव भवनवासियों में एक समयमें उत्पन्न होते हैं और इतने ही मरते हैं । १९७।।
॥ उत्पन्न होने वाले एवं मरने वाले जीवोंकी संख्या समाप्त हुई ।।
३. द. ब. क. एवं गुण्ठागजुत्ता
१. द. ब. क. ज. 8. सन्थे। २. द. ब. क. ज. ४. परिदि। देवं वा होइ देवीप्रो । ज. . एवं गुणगणजुता देवा दा होए देवीयो ।