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तिलोयएण्णत्ती
[ गाथा : १९८-२०२ भवनबासियोंकी प्रागति निर्देश णियकता भवणादो गम्भे 'सम्मुच्छि कम्म-भूमीसु।
पज्जचे उप्पज्जवि गरेसु तिरिएसु मिच्छभाव-जुदा ॥१६॥
अर्थ :--मिथ्यात्वभावसे युक्त भवनवासी देव भवनोंसे निकल (चय ) कर कर्मभूमियोंमें गर्भज या सम्मूच्र्छनज त ।। सन्ति मनुष्यों अथवा दिनों में उल्लन्न होते हैं ॥१९॥
सम्भाइट्ठी देवा गरेसु जम्मंति कम्म-भूमीए ।
गब्भे पज्जससुसलाग-पुरिसा ण होंति कइयाई॥१६६।। प्रर्य :-सम्यग्दृष्टि भवनवासी देव ( वहाँसे चयकर ) कर्मभूमियोंके गर्भज और पर्याप्त मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, किन्तु वे शलाका-पुरुष कदापि नहीं होते ।।१६६॥
तेसिमणंतर-जम्मे णिबुदि-गमणं हदि केसि पि । संजम-देसवाई गेण्हते केइ भव-भीरू ॥२००॥
॥ आगमणं गदं ॥ अर्थ :-उनमेंसे किन्होंके आगामी भवमें मोक्षकी भी प्राप्ति हो जाती है और कितने ही संसारसे भयभीत होकर सकल संयम अथवा देशब्रतोंको ग्रहण कर लेते हैं ॥२०॥
। आगमनका कथन समाप्त हुमा ।। भवनवासी-देवोंको प्रायुके बन्ध-योग्य परिणाम 'प्रचलिद-संका केई गाण-चरित्त किलिट्र-भाव-जुदा ।
भवणामरेसु पाउं बंधति हु मिच्छ-भाव-जुदा ॥२०१॥ अर्थ :-ज्ञान और चारित्रमें दृढ़ शंका सहित, संक्लेश परिणामों वाले तथा मिथ्यात्व भावसे युक्त कोई ( जीव ) भवनवासी देवों सम्बन्धी प्रायुको बांधते हैं ॥२०१॥
सबल-चरित्ता केई उम्मग्गंथा णिदाणगव-भावा । पावग-पहदिम्हि मया भावणवासीसु जम्मते ॥२०२॥
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१. द. ब. क्र. ज. ४ सम्मुच्छ। २. द. ब. क. प्रावलिदसंखा।