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गाया: २०३ २०७ ]
तदिश्रो महाहियारो
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:- शबल ( दोष पूर्ण ) चारित्र वाले, उन्मार्ग-गामी, निदान - भावोंसे युक्त तथा पापों की प्रमुखता से सहित जीव भवनवासियोंमें उत्पन्न होते हैं || २०२ ॥
प्रविणय सत्ता केई कामिणि-विरहज्जरेण जज्जरिदा । कलहपिया पाविट्ठा जायंते 'भवण- देवेसु ॥२०३॥
अर्थ :- कामिनीके विरहरूपी ज्वरसे जर्जरित कलहप्रिय और पापिष्ठ कितने ही अविनयी जीव भवनवासी देवोंमें उत्पन्न होते हैं ||२०३ ||
सष्णि असण्णी जीवा मिच्छा-भावेण संजुदा केई । 'जायंति भावणे दंसण-सुद्धा रंग कइया वि ॥ २०४ ॥
श्रथं :- मिथ्यात्व भावसे संयुक्त कितने ही संज्ञी और प्रसंज्ञी जीव भवनवासियोंमें उत्पन्न होते हैं, परन्तु विशुद्ध सम्यग्दृष्टि (जीव ) इन देवोंमें कदापि उत्पन्न नहीं होते ॥२०४॥ देव - दुर्गतियोंमें उत्पत्ति के कारण
मरणे विराहिबम्हि य केई कंदप्प किब्बिसा देवा । अभियोगा संमोह प्यहुदी - सुर- दुग्गदीसु जायंते ॥२०५॥
अर्थ :- ( समाधि ) मरा के विराधित करनेपर कितने ही जीव कन्दर्प, किल्विष, श्रभियोग्य और सम्मोह आदि देव दुर्गतियोंमें उत्पन्न होते हैं || २०५ !
कन्दर्प- देवोंमें उत्पत्तिके कारण
जे सच्च-वयण होगा 'हस्सं कुव्वंति बहुजणे णियमा । कंदप्प-रत-हिवया ते कंदध्पेसु
जायंति
॥ २०६॥
अर्थ :- जो सत्य वचनसे रहित हैं। बहुजनमें हंसी करते हैं और जिनका हृदय कामासक्त रहता है, वे निश्चयसे कन्दर्प देवों में उत्पन्न होते हैं ॥ २०६ ॥
वाहन - देवों में उत्पत्ति के कारण
जे · भूदि-कम्म- मंता भिजोग को दूहलाइ - संजुत्ता । जण-वंचणे पयट्ठा याहरण- देवेसु ते होंति ॥२०७॥
१. द. भवरणादिवेसु । २. द जायंते । ३. द. ब, क, ज ठ हिंसं ।