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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : १०६-११२ जिण-विट्ठ-पमाणाओ' होति पइण्णय-तियस्स देवीयो। सव्व-णि गिट्ठ-सुराणं, पियाओ बत्तीस पत्त षकं ॥१०॥
। ३२ । अर्थ :-प्रकीर्णक, प्राभियोग्य और किल्बिषिक, इन तीन देवोंकी देवियाँ जिनेन्द्रदेव द्वारा कहे गये प्रमाण स्वरूप होती हैं । सम्पूर्ण निकृष्ट देवोंके भी प्रत्येकके बत्तीस-बत्तीस प्रिया ( देवियाँ) होती हैं ।।१०६॥
अप्रधान परिवार देबोंका प्रमाण एदै सव्वे देवा देविदाणं पहाण-परिवारा।
अण्णे वि अप्पहाणा संखातीदा विराजति ॥११०॥ प्रर्थ :- ये सब उपर्युक्त देव इन्द्रोंके प्रधान परिवार स्वरूप होते हैं। इनके अतिरिक्त अन्य और भी असंख्यात अप्रधान परिवार सुशोभित होते हैं ।।११०॥
भवनबासी देवोंका आहार और उसका काल प्रमाण इद-पडिद-प्पहुदी तह वीओ मरण पाहारं ।
अमयमय-मइसिद्धि संगेण्हते णिरुवमारणं ॥१११॥ अर्थ : इन्द्र-प्रतीन्द्रादिक तथा इनकी देवियाँ अति-स्निग्ध और अनुपम अमृतमय पाहारको मनसे ग्रहण करती हैं ॥१११।।
'चमर-दुगे आहारो परिस-सहस्सेण होइ णियमेण । पणुवीस-दिणाण दलं भूदाणंदादि-छह पि ॥११२॥
व १००० । दि २५ । अर्थ :-चमरेन्द्र और वैरोचन इन दो इन्द्रोंके एक हजार वर्ष बीतनेपर नियमसे पाहार होता है । इसके प्रागे भूतानन्दादिक छह इन्द्रोंके पच्चीस दिनोंके आधे ( १२३ ) दिनोंमें आहार होता है ।।११२॥
२. द. ब. णिवरुवमणं । क. णिवरुषमारण ।
३. द. ज. ठ.
१.द. पमाणाप्रो, ज.ठ, पमाणिक । ४. द.ज.द. बरस ।
चरमदुगे।