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महाधिकारान्त मंगलाचरण
सण्णारग-रयण-दीवं लोयालोयप्पयासरण-समत्थं । पणमामि सुमइ-सामि सुमइकरं भग्व-संघस्स ॥२५५॥
एवमाइरिय-परंपरागय-तिलोयपण्पत्तीए भवणवासिय-लोयसरूव-रिणरूवणं पण्णत्ती णाम--
। तदियो महाहियारो समतो ।। अर्थ :-जिनका सम्यग्ज्ञानरूपी रत्नदीपक लोकालोकके प्रकाशनमें समर्थ है एवं जो ( चतुर्विध ) भव्य संघको सुमति देने वाले हैं, उन सुमतिनाथ स्वामीको मैं नमस्कार करता हूं ॥२५॥ इसप्रकार प्राचार्य-परम्परागत-त्रिलोक-प्रज्ञप्तिमें भवनवासी-लोकस्वरूप
निरूपण-प्रज्ञप्ति नामक तीसरा महाधिकार समाप्त हुआ।
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