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गाथा : १७६-१८० ] विदुप्रो महाहियारो
[ २०५ अर्थ :-छठी पृथिवीके अंतिम इन्द्रक लल्लंक और सातवीं पृथिवीके अवधिस्थान इन्द्रकका मन्तराल तीन हजार योजन और दो कोस कम एक राजू अर्थात् १ राजू -- ३००० योजन २ कोस प्रमाण है ॥१७॥
अवधिस्थान इन्द्रककी ऊवं एवं प्रधस्तन भूमिके बाहल्यका प्रमाण तिणि सहस्सा णव-सय-णवणउदी' जोयणाणि ये कोसा। उड्ढाधर-भूमीणं प्रवाहिवाणस्स परिमाणं ॥१७॥
३६६६ ! को २ ।
॥ इंदय-विच्चालं समत्तं ॥ अर्थ :-अवधिस्थान इन्द्रका ऊर्ध्व और प्रवक्ता भूनिक जाहल्यका प्रमाण तीन हजार नौ सौ निन्यानवे योजन और दो कोस है ।।१७६।।
विशेषार्थ:-गाथा १६३ के अनुसार -
---- ३६६६३ योजन बाहुल्य सातवीं पृथिवीके अवधिस्थान इन्द्रक बिल के नीचेकी और ऊपरकी पृथिवीका है ।
[1 इन्द्रक बिलोंके अन्तरालका वर्णन समाप्त हुआ । घर्मादिक पृथिवियों में श्रेणीबद्ध बिलोंके स्वस्थान अन्तरालका प्रमारण
प्रथम नरक में श्रेणीबद्धोंका अन्तराल णवणदि-जुद-चउस्सय-छ-सहस्सा जोयपाणि बे कोसा। पंच-कला णव-भजिदा धम्माए सेटिबद्ध-विच्चालं ॥१०॥
६४६६ । को २ ।। अर्थ :-धर्मा पृथिवीमें श्रेणीबद्ध बिलोंका अन्तराल छह हजार चार सौ निन्यानब योजन दो कोस और एक कोसके नौ-भागों से पाँच भाग प्रमाण है ।।१८०॥
नोट-१८० से १८६ तककी गाथाओं द्वारा सातों पृथिवियोंके श्रेणीबद्ध बिलोंका पृथक्पृथक् अन्तराल गाथा १५९-१६२ के नियमानुसार प्राप्त होगा । यथा--
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१. द. गाउणउदी।