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गाथा : २६०-२६२ ] पढमो महाहियारो
[ १०७ विशेषार्थ : उपर्युक्त आकृतिमें 3 राजू पृथिवीमें सुदर्शन मेरुको जड़ अर्थात् १००० योजनका, ३ राजू भद्रशालवनसे नन्दनबन पर्यन्तकी ऊँचाई अर्थात् ५०० योजनका, ३ राज नन्दनवनसे समविस्तार क्षेत्र अर्थात् ११००० योजनका, ३३ राजू समविस्तारक्षेत्रसे सौमनस वन अर्थात् ५१५०० योजनका, राजू सौमनसवनसे समविस्तार क्षेत्र अर्थात् ११००० योजनका और उसके ऊपर २५ राजू समविस्तारसे पाण्डुकवन अर्थात् २५००० योजनका प्रतीक है।
प्राणदानि-विहता ति-गुणः सेढी तडारण' वित्थारो' । 'चउतष्ठ-करणक्खंडिद-खेत्तेणं चूलिया होदि ॥२६॥
तिणि तडा भू-चासो ताण ति-भागेण होदि मुह-रुदं । तच्चूलियाए उदयो चउ-भजिदो ति-गुणिदो रज्जू ॥२६१॥
अर्थ : तटोंका विस्तार अट्ठानवेसे विभक्त और तीनसे गुरिणत जगच्छ्रेणी प्रमाण है। ऐसे चार तटवर्ती करणाकार स्खण्डित क्षेत्रोंसे चूलिका होती है, उस चूलिकाको भूमिका विस्तार तीनतटोंके प्रमाण, मुखका विस्तार इसका तीसरा-भाग तथा ऊँचाई चारसे भाजित और तीनसे गुणित, राजू मात्र है ।।२६०-२६१।।
विशेषार्थ :-मन्दराकृतिमें नन्दन और सौमनसवनोंके ऊपरी भागको समविस्तार करनेके लिए दोनों पाश्र्वभागोंमें चार त्रिकोण काटे गये हैं, उनमें प्रत्येकका विस्तार ( 3 = = ) राज और ऊँचाई ३ राजू है । इन चारों त्रिकोणोंमेंसे तीन त्रिकोणोंको सीधा और एक त्रिकोणको पलटकर उल्टा रखनेसे पाण्डुकवनके ऊपर चूलिका बन जाती है, जिसका भूमि विस्तार र राज , मुख ३ राजू , ऊँचाई । राजू और बेध ७ राज है ।
सत्तट्ठाणे रज्जू उड्ढुड्ढं एकवीस-पविभत्तं । ठविदूण वास-हेदु गुणगारं तेसु साहेमि ॥२६२।।
१. द.ब, तदारा ।
२. द, बिहत्ता रिरे तिष्णि गृया।
३. दै. क. ज.ठ, चउतदकारणावंरिद,
ब. उदत्तकारणखंडिद ।
८. द. ब. तदा ।