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निलोयपण्णनी
[ गाथा : ५९-६४ चविह-उनसग्गेहि रिगच्च-विमुक्को कसाय-परिहीणो। छुह-पहुदि-परिसहेहि परिचत्तो राय-दोसेहि ॥५६॥ जोयण-पमारण-संठिद-तिरियामर-भणुव-णिवह-पडिबोहो । मिदु-महुर-गभीरतरा-विसद'-विसय-सयल-भासाहि ।।६०॥ अद्वरस महाभासा खुल्लयभासा यि सत्तसय-संखा । अवस्वर-अणक्खरप्पय सण्णी-जीवारण सयल-भासाश्रो ॥६१॥ एदासि भासारणं तालुव-दंतो?-कंठ-वावारं । परिहरिय एक्क-कालं भन्न-जणारणंद-कर-भासो ॥६२॥ भावरण-तर-जोइसिय-कप्पवासेहि केसय-बलेहि । विज्जाहरेहि चक्किप्पमुहेहि गरेहिं तिरिएहि ॥६३॥ एदेहि अण्णेहि विरचिद-चरणारविंद-जुग-पूजो ।
दिटु-सयलटु-सारो महवीरो अस्थ-कत्तारो ॥६४॥
अर्थ :-जिनका शरीर पसीना, रज ( धूलि ) आदि मलसे तथा लालनेत्र और कटाक्षवाणोंको छोड़ना आदि शारीरिक दूषणोंसे सदा प्रदूषित है, जो प्रादिके अर्थात् वर्षभनाराच संहनन और समचतुरस्र-संस्थानरूप सुन्दर प्राकृतिसे शोभायमान हैं, दिव्य और उत्कृष्ट सुगन्धके धारक हैं, रोम और नख प्रमाणसे स्थित ( वृद्धिसे रहित ) हैं; भूषण, आयुध, वस्त्र और भीतिमे रहित हैं, सुन्दर मुखादिकसे शोभायमान दिव्य-देहसे विभूषित हैं, शरीरके एकहजार-आठ उत्तम लक्षणोंसे युक्त हैं; देव, मनुष्य, तिर्यंच और अचेतनकृत चार प्रकारके उपसर्गोरो सदा विमुक्त हैं, कषायोंसे रहित हैं, क्षुधादिक बाईस परीषहों एवं रागद्वेषसे रहित हैं, मृदु, मधुर, अतिगम्भीर और विषयको विशद करनेवाली सम्पूर्ण भाषाओंसे एक योजन प्रमाण समवसरणसभामें स्थित तिर्यंच, देव और मनुष्योंके समूहको प्रतिबोधित करने वाले हैं, जो संज्ञी जीवों की अक्षर और अनक्षररूप अठारह महाभाषा तथा सात सौ छोटी भाषामोंमें परिणत हुई और तालु, दन्त, अोठ तथा कण्ठके हलन-चलनरूप व्यापारसे रहित होकर एक ही समयमें भव्यजनोंको आनन्द करनेवाली भाषा ( दिव्यध्वनि ) के स्वामी हैं; भवनवासी, ध्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी देवों के द्वारा तथा नारायण, बलभद्र, विद्याधर और चक्रवर्ती प्रादि प्रमुख मनुष्यों, तिर्यंचों एवं अन्य भी ऋषि-महर्षियोंसे जिनके चरणारविन्द युगलकी
१. व. विसदयसमसयल ।