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गाथा : ५७-६१ ] तदिनो महाहियारो
[ २८१ जम्माभिसेय-भूसण-मेहुण-अोलग्ग'-मंत सालाहि । विविधाहिं' रमणिज्जा मणि-तोरण-सुदर-दुवारा ॥७॥ *सामण्ण-गब्भ-कदली-चित्तासण-णालयावि-गिह-जुत्ता। कंचण-पायार-जुदा विसाल-बलही विराजमाणा य ॥५॥ धुच्यत-य-बडाया पोक्खरणी-वावि-कव-वण-सहिवा' । धूव-घडेहि सुजुट्ठा णाणावर-मत्त-धारणोपेदा ॥५६।। मणहर-जाल-कवाडा जाणाविह-सालभंजिका-बहुला ।
आदि-णिहणेण होणा कि बहुणा ते णिरुवमा णेया ॥६०॥ म :-सब भान नारकर, नौ, दमा इत्याहिक विचित्र भूमियोंसे विभूषित; लम्बायमान रत्नमालानोंसे सहित; चमकते हुए मणिमय दीपकोंसे सुशोभित ; जन्मशाला, अभिषेकशाला, भूषणशाला, मैथुनशाला, पोलगशाला ( परिचर्यागृह ) और मंत्रशाला, इन विविध प्रकारकी शालाओंसे रमणीक; मणिमय तोरणोंसे सुन्दर द्वारों वाले ; सामान्यगृह, गर्भगृह, कदलीगृह, चित्रगृह, प्रासनगृह, नादगृह और लतागृह इत्यादि गृह-विशेषोंसे सहित; स्वर्णमय प्राकारसे संयुक्त विशाल छज्जोंसे विराजमान; फहराती हुई ध्वजा-पताकानोंसे सहित; पुष्करिणी, वापी, कूप और वनोंसे संयुक्त; धूपघटोंसे युक्त अनेक उत्तम मत्तवारणों (छज्जों) से संयुक्त ; मनोहर गवाक्ष और कपाटोंसे सुशोभित; नानाप्रकारको पुत्तलिकाओं सहित और आदि-अन्तसे हीन ( अनादिनिधन ) हैं । बहुत कहनेसे क्या ? ये सब प्रासाद उपमासे रहित ( अनुपम ) हैं, ऐसा जानना चाहिए ॥५६-६०।।
चर-पासाणि तेसु विचित्त-रूवाणि आसपाणि च । वर-रयण-विरइदारिण सयणाणि हवंति दिन्वाणि ॥६१।।
॥पासादा गदा ।।१४॥ अर्थ :-उन भवनोंके चारों पार्श्वभागोंमें विचित्र रूपवाले आसन और उत्तम रत्नोंसे रचित दिव्य शय्यायें स्थित हैं ॥६१।।
।। प्रासादोंका कथन समाप्त हुमा ।।१४।।
३. द. ब.क, ज. ठ. विदिलाहि ।
१. द. प्रोलंग, ब. क. उलग। २. द. ब. क. ज. 3. सालाइ। ४. ब. क. सामेण । ५. ब. कूड। ६ द. ब. क्र. ज. 3. संथई ।