________________
२४२ ]
तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : २८०-२५३ होंति णपुसय-वेदा णारय-जीवा य दव-भावेहि । सयल-कसाया-सत्ता संजुत्ता गाण-छक्केण ॥२०॥ ते सव्वे णारइया विविहिं असंजमेहिं परिपुण्णा । चक्नु-प्रचक्खू-प्रोही-दसण-तिदएरण जुत्ता य ॥२८१॥ भावेसुतिय-लेस्सा तालो किण्हा य गोल-काोया । दवेणुक्कड़-किण्हा' भन्याभन्वा य ते सव्वे ॥२८२।। छसम्मता ताई उधसम-सइयाई-वेदगं-मिच्छो । 'सासरण-मिस्सा य तहा संणी पाहारिणो प्रणाहारा ॥२८३॥
अर्थ :-सब नारकी नरकगतिसे सहित, पंचेन्द्रिय, त्रसकायवाले, चार मनोयोगों, चार वचनयोगों तथा दो वैक्रियिक और कार्मरा, इन तीन काय-योगोंसे संयुक्त हैं। वे नारकी जीव द्रव्य और भावसे नपुसकवेदवाले; सम्पूर्ण कपायोंसे युक्त, छह शान बाले, विविध प्रकारके असंयमोंसे परिपूर्ण; चक्षु, अचक्षु, अवधि, इन तीन दर्शनोंसे युक्त; भावको अपेक्षा कृष्ण, नील, कापोत, इन तीन लेश्याओं और द्रव्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट कृष्ण लेश्यासे सहित; भव्यत्व और अभव्यत्व परिणामसे युक्त, प्रौपशमिक, क्षायिक, वेदक, मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र इन छह सम्यक्त्वोंसे सहित, संज्ञी, आहारक एवं अनाहारक होते हैं ।।२७६-२८३।।
विशेषार्थ :--नरक भूमियोंमें स्थित सभी नारकी जीव १ गति ( नरक ), २ जाति (पंचेन्द्रिय ), ३ काय (अस), ४ योग (सत्य, असत्य, उभय, अनुभयरूप चार मनोयोग, चार वचन योग तथा वैक्रियिक, वैक्रियिक मिश्र और कार्मा तीन काययोग), ५ वेद { नपुसकर्वेद ), ६ कषाय ( स्त्रीवेद और पुरुष बेदसे रहित तेईस ), ७ ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि, कुमति, कुश्रुत और विभंग ), ८ असंयम, ६ दर्शन ( चक्षु, अचक्षु, अवधि ), १० लेश्या ( भावापेक्षा तीन अशुभ और द्रव्यापेक्षा उत्कृष्ट कृष्ण), ११ भव्यत्व ( एवं अभव्यत्व), १२ सम्यक्त्व (प्रौपशमिक, क्षायिक, वेदक, मिथ्यात्व, सासादन और मिथ), १३ संज्ञी और १४ आहारक ( एवं अनाहारक ) इन चौदह मार्गणाओंमेंसे यथायोग्य भिन्न भिन्न मार्गणापोंसे संयुक्त होते हैं।
१. द. किण्हो। २. ब. सासरिण- मिस्सा ।