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गाथा : २८४-२८७ बिटुलो नाहाडिवाने
[ २४३ नारकी जीवोंमें उपयोग सायार-अणायारा उवयोगा दोणि होति तेसि च । तिव्व-कसारण शुदा तिन्योदय-अप्पसत्त-पयडि-जुदा ॥२८४॥
।। गुण्ठागादी समत्ता ।।६।। प्रर्ष : तीन कषाय एवं तीव्र उदयवाली पाप-प्रकृतियोंसे युक्त उन-उन नारकी जीवोंके साकार ( ज्ञान ) और निराकार ( दर्शन ) दोनों ही उपयोग होते हैं ।।२८४।।
॥ इसप्रकार गुणस्थानादिका वर्णन समाप्त हुआ ।।६।।
नरकोंमें उत्पन्न होने वाले जीवोंका निरूपण पढम-धरंतमसण्णी पढ़मं बिदियास सरिसश्रो जादि । पढमादी-तदियंत पक्खो भुजगा' वि प्रातुरिमं ।।२८५॥ पंचम-खिदि-परियंत सिंहो इत्थी वि छद्र-खिदि-अंतं ।
पासत्तम-भूवलयं मच्छा मणुवा य वच्चंति ॥२६॥
अर्थ:-पहली पृथिवीके अन्त-पर्यन्त प्रसंज्ञी तथा पहली और दूसरी पृथिवीमें सरीसृप जाता है। पहली से तीसरी पृथिवी पर्यन्त पक्षी एवं चौथी पृथिवी पर्यन्त भुजंगादिक उत्पन्न होते हैं ॥२८॥
अर्थ :- पांचवीं पृथिवी पर्यन्त सिंह, छठो पृथिबी तक स्त्री और सातवीं भूमि तक मत्स्य एवं मनुष्य ही जाते हैं ।।२८६।।
नरकोंमें निरन्तर उत्पत्तिका प्रमाण
अट्ट-सग-छक्क-पण-चउ-तिय-दुग-वारानो सत्त-पुढवीसु । कमसो उप्पजते असपिण-पमुहाइ उपकस्से ॥२८॥
।। उप्पण्णामारण-जीवाणं वण्णाणं समत्तं ॥७॥
१. द. ज. ठ. भुयंगावियायए। २. द. ज. सम्मत्ता।