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तिलोय पण्णत्ती
[ गाथा : २८८
थर्थ :- सातों पृथिवियों में क्रमशः वे श्रसंज्ञी प्रादिक जीव उत्कृष्ट रूप से ग्राठ, सात, छह, पाँच, चार, तीन और दो बार उत्पन्न होते हैं ।। २८७ ||
विशेषार्थ :- नरकसे निकला हुआ कोई भी जीव प्रसंज्ञी और सम्मूच्र्च्छन जन्म वाला नहीं होता तथा सातवें नरकसे निकला हुआ कोई भी जोब मनुष्य नहीं होता, अतः नरकसे निकले हुए जीवको श्रसंज्ञी, मत्स्य और मनुष्य पर्याय धारण करनेके पूर्व एक बार नियमसे क्रमश: संज्ञी तथा गर्भज तिर्यञ्च पर्याय धारण करनी ही पड़ती है । इसी कारण इन जीवोंके बोचमें एक-एक पर्यायका अन्तर होता है, किन्तु सरीसृप, पक्षी, सर्प, सिंह और स्त्रीके लिए ऐसा नियम नहीं है, वे बीच में अन्य किसी पर्यायका अन्तर डाले बिना ही उत्पन्न हो सकते हैं ।
। इसप्रकार उत्पद्यमान जीवों का वर्णन समाप्त हुआ ||७|| रत्नप्रभादिक पृथिवियोंमें जन्म-मरण के अन्तरालका प्रमाण
चवीस मुहत्तार्णि सत्त दिणा एक्क पक्ख मासं च । दो चउ छम्मासाई पढमादो जम्म-मरण-अंतरियं ॥२८८॥
मु२४ | दि ७ दि १५ । मा १ मा २ मा ४ मा ६ ।
।। जम्मण - मरण अंतर- काल-मारणं समत्तं ॥ ८ ॥
अर्थ :- चौबीस मुहूर्त, सात दिन, एक पक्ष, एक मास, दो मास, चार मास और छह मास यह क्रमशः प्रथमादिक पृथिवियोंमें जन्म-मरण के अन्तरका प्रमाण है ||२६||
विशेषार्थ : यदि कोई भी जीव पहली पृथिवीमें जन्म या मरण न करे तो अधिक से अधिक २४ मुहूर्त तक, दूसरी में ७ दिन तक, तीसरीमें एक पक्ष ( पन्द्रह दिन ) तक. चौथीमें एक माह तक, पाँचवीं में दो माह तक, छठी ४ माह तक और सातवीं पृथिवीमें उत्कृष्टतः ६ माह तक न करे, इसके बाद नियमसे वहाँ जन्म-मरण होगा ही होगा ।
इसप्रकार जन्म-मरण के अन्तरकालका प्रमाण समाप्त हुआ || 5 ||
१६. ज. सम्मत्ता ।