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विदुश्री महाहियारो
द- सव्व जीवाणं ।
उपरितन गुणस्थानोंका निषेध तारण प्रपच्चक्खाणावर गोवय सहिदहिंसाणंद-जुदा गाणाविह संकिलेस -पउराणं देस विरदादि-उयरिम- दस- गुणठाणाण' हेतुभूदाश्रो । जाओ विसोहिया कड्या विण ताम्रो जायंति ॥ २७६ ॥
॥२७५॥
गाथा : २७५ - २७६ ]
अर्थ :- अप्रत्याख्यानावरण कषायके उदयसे सहित, हिसानन्दो रौद्र ध्यान और नानाप्रकार के प्रचुर संक्लेशोंसे संयुक्त उन सब नारकी जीवोंके देशविरत आदि उपरितन दस गुणस्थानोंके हेतुभूत जो विशुद्ध परिणाम हैं, वे कदा नहीं होते हैं ।।२७५-२७६ ।।
नारकी जीवोंमें जीव-समास और पर्याप्तियां
पज्जतापज्जता जीय-समासा य होंति एदा । पज्जत्ती छन्भेया तेसियमेत्ता अपज्जती ॥ २७७॥
अर्थ :- इन नारकी पर्याप्तियाँ एवं इतनी (छह ) ही
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जीवोंके पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास तथा छह प्रकारकी पर्याप्तियाँ भी होती हैं || २७७ ||
नारकी जीवों में प्रारण और संज्ञाएँ
पंच वि इंदिय पारणा 'मण वय कायाणि प्राउयाणा य । आरणप्पाणपाणां दस पाणा होंति चड सण्णा ॥२७८॥
अर्थ :-- ( नारकी जीवोंके ) पाँचों इन्द्रियाँ, मन-वचन-काय ये तीन बल, आयु और प्रान प्राण ( श्वासोच्छ्वास ) ये दसों प्राण तथा आहार, भय, मैथुन और परिग्रह, ये चारों संज्ञाएँ होती हैं ।। २७८ ||
नारकी जीवोंमें चौदह मार्गणाए
गिर - गदीए सहिदा पंचक्खा तह य होंति तस - काया । चउ-मण-वय- दुग-वेगुन्निय-कम्मइय- सरीरजोग - जुदा
१. द. अ. ज. क. ठ. गुणठारपारि । २. ब. उवसोधियाउ । ३. उ. ज. मणि, वचि ।
॥२७६॥