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तिलोयपण्णत्ती
रत्नप्रभादि पृथिवियों में अवधिज्ञानका निरूपण
पहावणी कोसा चत्तारि श्रहिणारण- खिढी । पत्तेक्क परिहारणी गाउदद्वेण ॥ २७२॥
तप्परदो
को ४ | ३ | ३ | ३ । २ । ३ । १ ।
|| ओहि समत्ता ||५||
अर्थ :- रत्नप्रभा पृथिवीमें अवधिज्ञानका क्षेत्र चार कोस प्रमाण है, इसके आगे प्रत्येक पृथिवी में उक्त अवधि क्षेत्रमेंसे अर्धगव्यूति ( कोस ) की कमी होती गई है ।। २७२ ।।
२४० ]
[ गाथा : २७२-२७४
विशेषार्थ :- रत्नप्रभा पृथिवीके नारकी जीव अपने अवधिज्ञानसे ४ कोस तक, शर्कराके ३३ कोस तक, बालुका पृ० के ३ कोस तक, पंक पृ० के २३ कोस तक धूम पृ० के २ कोस तक, तमः पृ० के १३ कोस तक और महातमः प्रभाके नारकी जीव एक कोस तक जानते हैं ।
॥ इसप्रकार अवधिज्ञानका वर्णन समाप्त हुआ ||५||
नारकी जीवोंमें बीस प्ररूपणाओंका निर्देश
गुणजीवा पज्जत्ती पारणा सण्णाय मग्गरणा कमसो । उवजोगा 'कहिदथ्वा णारइयाणं जहा- जोगं ॥ २७३ ॥
अर्थ :- नारको जीवों में यथायोग्य क्रमशः गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, मार्गरण और उपयोग ( ज्ञान दर्शन ), इनका कथन करने योग्य है ॥। २७३ ।।
नारको जीवों में गुणस्थान
चत्तारो गुणठारणा णारय-जीवाण होंति सव्याणं ।
मिच्छादिट्ठी सासण- मिस्साणि तह प्रविरको सम्मो || २७४ ||
अयं : सब नारकी जीवोंके मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिश्र और श्रविरतसम्यग्दृष्टि, ये चार गुणस्थान हो सकते हैं ।। २७४ ||
१. क. कमदग्वा । २. द. जहाजोगं ।