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तिलोसपण्णत्ती
[ गाथा : २३०-२३२ ऊपरका विस्तार प्राप्त होता है। क्योंकि एक राजूकी ऊँचाईपर राजूकी हानि होती है अतः । रालूपर ( x +) = राजूकी हानि हुई ।
___ इसे पूर्व विस्तार मेंसे घटादेने पर (1-2)=१४४ राजू सौमनस दनपर लोकमेरुका विस्तार होता है। क्योंकि एक राजूपर र राजूको हानि होती है अतः ३ राजूपर (३४४)=२५ राजूकी हानि हुई। इसे पूर्वोक्त विस्तार मेंसे घटानेपर ( 27 -2)= २३राजू सौमनस वनके समरुन्द्रभागके ऊपरका विस्तार है । क्योंकि एक राजूपर ५ राजूकी हानि होती है अत: राजूपर ( x)६.१ राजकी हानि हुई । इसे पूर्वोक्त विस्तार मेंसे घटा देनेपर (T -1 ) अर्थात् पाण्डुकवन पर लोकमेरुका विस्तार एक राजू प्राप्त होला है।
धनफल प्राप्त करने हेतु गुणकार एवं भागहार मंदर-सरिसम्मि जगे सत्तसु ठाणेसु ठविय रज्जु-घणं । हेट्ठादु घरणफलं स य वोच्छं गुणगार-हाराणि ॥२३०॥ चउसीदि-चउसयारणं सत्तावीसाधिया य दोणि सया। एक्कोण-चउ-सयाई बीस-सहस्सा विहीण-सगसट्ठी ॥२३॥ एकोणा दोषिण-सया पण-सट्ठि-सयाइ णब-जुदाणि पि।
पंचत्तालं एदे गुणगारा सत्त-ठाणेसु ॥२३२॥
पर्थ :-मन्दरके सदृश लोकमें घनफल लानेके लिए नीचेसे सात स्थानोंमें धमराजको रखकर गुणकार और भागहार कहते हैं ।।२३०।।
अर्थ:-चारसी चौरासी, दो सौ सत्ताईस, एक कम चारसी अर्थात् तीनसो निन्यानवे, सड़सठ कम बीस हजार, एक कम दोसी, नौ अधिक पैसठसौ और पैंतालीस, ये क्रमसे सात स्थानोंमें सात गुणकार हैं ।।२३१-२३२।।
विशेषाम :-लोकमेरुके सात खण्ड किये गये हैं । इन सातों-खण्डोंका भिन्न-भिन्न घनफल प्राप्त करनेके लिए "मुख भूमि जोगदले पदहदे' सूत्रानुसार प्रक्रिया करनी चाहिए। यथा—लोकमरु अर्थात् प्रथम खण्डको जड़की भूमि +7 मुख= ३४२, तथा घनफल= xxx=" घनराजू है। [ यहाँ भूमि और मुखके योगको प्राधा करके राजू ऊँचाई और ७ राजू मोटाईसे गुरिणत किया गया है । यही नियम सर्वत्र जानना चाहिए ]