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गाथा : २२८-२२६ ]
पढमो महाहियारो
छब्बीसहिय-समं सोलस एक्कारसादिरित्त-सया । 'इगिवीसेहि वित्ता तिसु ट्ठाणेसु हवंति द्वादो ॥ २२८ ॥
पत्रक १२६ । च४७११६ । १४७ १११ ।
एक्कोण चसयाई दुसया - चउदाल- खुसयमेक्कोणं । चसीदी चउठाने होवि हु चउसोदि-पविहता ॥ २२६ ॥
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अर्थ :- मेरुके सदृश लोक में, ऊपर-ऊपर सात स्थानोंमें राजूको रखकर विस्तारको लाने के लिए गुणकार और भागहारोंको कहता हूं ।। २२७॥
अर्थ :- नीचेसे तीन स्थानोंमें इक्कीससे विभक्त एकसी छब्बीस, एकसौ सोलह और एकसौ ग्यारह गुणकार हैं ||२२८ ||
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अर्थ :- इसके आगे चार स्थानोंमें क्रमशः चौरासीसे विभक्त एक कम चार सौ ( ३६ ), दो सौ चवालीस, एक कम दो सौ ( १६६ ) और चौरासी, ये चार गुणकार हैं ।। २२६||
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विशेषार्थ : मेरु सदृश लोकका विस्तार तलभागमें ६ राजू है । इससे
राजू ऊपर जाकर लोकमेरुका विस्तार इसप्रकार प्राप्त होता है । यथा - एक राजू ऊपर जानेपर राजू की हानि होती है अतः राजकी ऊँचाई पर (x) = राजकी हानि हुई । इसे ६ राजू विस्तारमें से घटा देने पर ( ३१ ) = राजू भद्रशालवनपर लोकमेरुका विस्तार है क्योंकि एक राजू पर ४ राजूकी हानि होती है अतः ३ राजुकी ऊँचाई पर पूर्ण विस्तार में से घटा देनेपर (शे) - है । क्योंकि एक राजू पर राजूकी हानि होती है अतः हानि प्राप्त हुई। इसे पूर्व विस्तार से घटाने पर (
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राजकी हानि हुई । इसे राजू विस्तार नन्दनवनपर लोकमे रुका राजू पर ( ३ ) - ६४ राजू समविस्तार के
३ ) = राजूकी
१. ब. क. इगवासेवि द. इगवीसे कि तहत्या तिसु ठाणेसु ठदिय हंवति । ज ठ सित्ता ।
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