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तिलोयपण्याती
[ गाथा : २२५-२२७ हानि-वृद्धि (चय) एवं विस्तारका प्रमाण भूमीन मुहं' सोहिय उदय-हिदे भूमुहादु हारिण-चया । 'छक्केवककु-मुह-रज्जू उस्सेहा दुगुण-सेढोए ॥२२५।।
। ६६ । ७१ ! -२ । तक्खय-वढि-विमाणं चोदस-भजिदाइ पंच-रूवाणि । णिय-णिय-उदए पहरं पारपज्ज तस्स तस्स खिदि-वासं ॥२२६।।
|१४| अर्थ :-भूमिमेंसे मुखको घटाकर शेषमें ऊँचाईका भाग देनेपर जो लब्ध प्राबे उतना भूमिकी अपेक्षा हानि और मुखकी अपेक्षा वृद्धिका प्रमाण होता है । यहाँ भूमिका प्रमाण छह राज, मुखका प्रमाण एक राजू, और ऊँचाईका प्रमाण दुगुणित श्रेणी अर्थात् चौदह राजू है ।।२२।।
प्रर्य :-हानि और वृद्धिका वह प्रमाण चौदहसे भाजित पाँच, अर्थात् एवा राजूके चौदह भागों से पाँच भागमात्र है । इस क्षय-वृद्धिके प्रमाणको अपनी-अपनी ऊँचाईसे गुणा करके विवक्षित पृथिवी (क्षेत्र) के विस्तारको ले आना चाहिए ॥२२६।।
विशेषार्थ :-इस मन्दराकृति लोकको भूमि ६ राजू और मुख विस्तार एक राजू है। यह मध्यमें किस अनुपातसे घटा है उसका चय निकालनेके लिए भूमिमेंसे मुखको घटाकर शेष (६ - - १)-५ राजूमें १४ राजू ऊँचाईका भाग देनेपर हानि-वृद्धिका चय प्राप्त होता है । इस चयका अपनी ऊँचाईमें गुणा करदेनेसे हानिका प्रमाण प्राप्त होता है । उस हानि प्रमाणको पूर्व विस्तारमेंसे घटा देनेपर ऊपरका विस्तार प्राप्त हो जाता है। मेरु सदृश लोकके सात स्थानोंका विस्तार प्राप्त करने हेतु गुणकार एवं भागहार
मेरु-सरिच्छम्मि जगे सत्त-ट्ठाणेसु ठविय उड्डुड्ढे । रज्जूमो रुद8 'बोच्छं गुणयार-हाराणि ॥२२७॥
१. द. ज. ठ. मुहवासो, ब. क. मुहसोहो । २. द. कुमह । क. प्रज्जय तस्स तस्स । ४. द. ज. ठ. रुदे बोच्छ, न.क. सदे दो यो
३. द. ब. ज. ठ, पणेज्जघत्तस्स, ।