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गाथा : २२३-२२४ ]
मो महाया
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इस श्राकृति में राजू पृथिवीमें सुदर्शन मेरुकी नींव ( जड़ ) अर्थात् १००० योजनका राजु भद्रशालवनसे नन्दनवन तककी ऊँचाई अर्थात् ५०० योजनका, राजू नन्दनवनसे ऊपर समरुन्द्र भाग ( समान विस्तार) तकका श्रर्थात् ११००० योजनका सौमनस बनके प्रमाण अर्थात् ५१५०० योजनका, उसके ऊपर ३ राजू समविस्तार अर्थात् ११००० योजना और उसके बाद * राजू समविस्तार के अन्तसे पाण्डुकवन अर्थात् २५००० योजनका प्रतीक है ।
अन्तरवर्ती चार त्रिकोणोंसे चूलिकाकी सिद्धि एवं उसका प्रमाण
पण्णरस-हदा रज्जू छप्परप- हिंदा 'तडारण वित्थारो । पक्कं 'तक्करणे खंडिद- वेत्तरेण चूलिया सिद्धा ।।२२३ ॥
उह १५३
पणदाल-हरा उल्लू छलिया वेदि सुन्दास : उदश्रो दिवद-रज्जू भूमि-ति-भावेण मुह- वासो ॥२२४॥
अर्थ :-पन्द्रहसे गुरिणत और छप्पनसे भाजित राजू प्रमाण चूलिकाके प्रत्येक तटोंका विस्तार है । उस प्रत्येक अन्तरवर्ती कररणाकार अर्थात् त्रिकोण खण्डितक्षेत्र से चूलिका सिद्ध होती है ।। २२३ ।।
लिकाकी भूमिका विस्तार पैंतालीस से गुणित और छप्पन से भाजित एक राजू प्रमाण (राजू ) है । उसी चूलिकाकी ऊँचाई डेढ राजू ( १३ ) और मुख - विस्तार भूमिके विस्तारका तीसरा भाग अर्थात् तृतीयांश ( ) है || २२४॥
विशेषार्थ :- मन्दराकृतिमें नन्दन और सौमनसवनोंके ऊपरी भागको समतल करनेके लिए दोनों पार्श्वभागों में जो चार त्रिकोण काटे गये हैं, उनमें प्रत्येककी चौड़ाई व राजू और ऊँचाई १३ राजू है । इन चारों त्रिकोणोंमेंसे तीन त्रिकोणोंको सीधा और एक त्रिकोपको पलटकर उलटा रखने से चूलिकाकी भूमिका विस्तार राजू, मुख विस्तार प्रेष्ठे राजू और ऊँचाई १३ राजू प्रमाण प्राप्त होती है ।
१. द. ज. क. ठ तदागा । २. ज. द. तक्का रण । ३. द. ज. हु८६४५ । ६ ।