________________
१६२ ]
तिलोयपण्पत्ती
[ गाथा : १५३-१५५ छठी पृथिवीके तीन इन्द्रकोंका पृथक्-पृथक् विस्तार तिय-जोयण-लक्खाणि सहस्सया पंचहत्तरि-पमाणा। छट्टोए 'वमुगदए हिम- दय-रद-परिसंखा ॥१५३।।
३७५००० । अर्थ :--छठी पुथिवीमें हिम नामक प्रथम इन्द्रकके विस्तारका प्रमाण तीन लाख पचहत्तर हजार योजन है ।।१५३।।
विशेषार्थ :-४६६६६६ - ६१६६६३-३७५००० योजन विस्तार छठी पृ० के प्रथम हिम इन्द्रक बिलका है।
दो जोयण-लक्खाणि तेसोदि-सहस्स-ति-सय-तेत्तीसा । एक्क-कला छट्ठीए पुढवीए होइ बद्दले रुदो ॥१५४॥
२८३३३३३। अर्थ :-छठी पथिवीमें वर्दल नामक द्वितीय इन्द्रकका विस्तार दो लाख, तेरासी हजार, तीनसौ तेतीस योजन और एक योजनके तीसरे भाग प्रमाण है ।।१५४॥
विशेषार्थ:-३७५००० - ६१६६६१=२८३३३३१ योजन विस्तार छठी पृ० के दूसरे वर्दल इन्द्रक बिलका है।
एक्कं जोयण-लक्खं इगिणउदि-सहस्स-छ-सय-छासट्ठी । दोणि कला वित्थारो लल्लंके छट्ठ-वसुहाए ॥१५॥
१६१६६६३ । अर्थ :-छठी पृथिवीमें लल्लक नामक तृतीय इन्द्रकका विस्तार एक लाख, इक्यानबे हजार छहसौ छयासठ योजन और एक योजनके तीन-भागोंमेंसे दो-भाग प्रमाण है ।।१५।।
विशेषार्थ :-२८३३३३३ – ११६६६३ - १९१६६६१ योजन विस्तार लल्लक नामक तीसरे इन्द्रक बिलका है।
१. ६. न. क. ज. ठ, वसुमाई।
२. द. बद्दलेसु ।