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गाथा : २५०-२५२ ] तदिनो महाहियारो
दीयेसु गिदेसु भोग-खिदोए वि गंदण-वणेसु। वर-पोक्खरिणी-पुलिणत्यलेसु कोडंति राएण ॥२५०॥
॥ एवं 'सुहप्परूवणा समत्ता ।
अर्थ :-( वे कुमार देव ) रागसे-द्वीप, कुलाचल, भोगभूमि, नन्दनवन एवं उत्तम बावड़ी अथवा नदियोंके तट स्थानों में भी क्रीड़ा करते हैं ॥२५०।।
इस प्रकार देवोंको सुख-प्ररूपणाका कथन समाप्त हुआ ।
सम्यक्त्वग्रहणके कारण
भवरणेसु समुप्पण्णा पत्ति पाविदूरग छन्भेयं । जिण-महिम-वंसणेणं केई 'देविद्धि-दसणदो ॥२५१।।
जादीए सुमरणेणं घर-धम्मप्पबोहणावलद्धीए। गेण्हते सम्मत्तं दुरंत-संसार-णासयरं ॥२५२।।
॥ सम्मत्त-महणं गदं ।।
अर्थ :-भवनोंमें उत्पन्न होकर छह प्रकारको पर्याप्तियोंको प्राप्त करने के पश्चात् कोई जिन-महिमा ( पंचकल्याणकादि ) के दर्शनसे, कोई देवोंकी ऋद्धिके देखनेसे, कोई जातिस्मरणसे और कितने ही देव उत्तम धर्मोपदेशकी प्राप्तिसे दुरन्त संसारको नष्ट करनेवाले सम्यग्दर्शनको ग्रहण करते हैं ॥२५१-२५२॥
॥ सम्यक्त्यका ग्रहण समाप्त हुभा ॥
१. द. ब. क. ज. उ. सस्वप्पं ।
२. द. ब. के. ज. ठ. देविंद।