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तिलोयपण्णत्ती
हि पि विजाणतो प्रष्णोष्णुप्पण्ण-पेम्म- मूळ सणा । कामंधा ते सव्वे गदं पि कालं ण जाणंति ॥ २४६ ॥
[ गाथा २४७-२४६
अर्थ :- अवधिज्ञानसे जानते हुए भी परस्पर उत्पन्न प्रेमसे मूढमनवाले मानसिक विचारोंसे युक्त वे सब देव कामान्ध होकर बीते हुए समयको भी नहीं जानते हैं ।। २४६ ||
वर-रयण-कंचणमये विचित्त-सयलुज्जलम्मि पासादे |
काला गरु - गंध राग- णिहारणे रमंति सुरा ॥२४७॥
अर्थ :---वे देव उत्तम रत्न और स्वर्णसे विचित्र एवं सर्वत्र उज्ज्वल, कालागरुकी सुगन्धसे व्याप्त तथा रागके स्थानभूत प्रासादमें रमण करते हैं ।। २४७ ||
सयपाणि श्रासणाणि मउवारिण विचित्त- रूब- रइदारिं । तणु-मरण - नयणाणंदण - जणणाणि होंति देवाणं ॥ २४८ ॥
अर्थ : देवोंके शयन और श्रासन मृदुल, विचित्र रूपसे रचित तथा शरीर, मन एवं नेत्रोंके लिए आनन्दोत्पादक होते हैं || २४८ ॥
पास-रस- रूय' - सद्बुणि गंधेहि वढियाणि 'सोक्खाणि ।
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उबभुजंता देवा तिसि ण लर्हति णिमिसं पि ॥ २४६ ॥
अर्थ :- (वे देव ) स्पर्श, रस, रूप, सुन्दर शब्द और गन्धसे वृद्धिको प्राप्त हुए सुखोंका अनुभव करते हुए क्षणमात्र के लिए भी तृप्तिको प्राप्त नहीं होते हैं || २४६ ॥
१. द. क. ज. 5. रूववज्जूरिण गंधेहि, ब. रूवचक्र गंधेहि । २. द. ब. क. ज. ठ. सोज्जारिण । ३. द. ब. क. उवयंजुत्ता । ज. ठ. उत्रवयजुत्ता ।