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रूप प्राप्त हुई अपनी तुच्छ देवपर्याय के लिए पश्चात्ताप करते हैं । (२११-२२२ ) तत्काल मिथ्यात्व भाव का त्याग कर सम्यक्त्वो होकर महाविशुद्धिपूर्वक जिनपूजा का उद्योग करते हैं । (२२३-२२५) स्नान करके (२२६), प्राभूषणादि (स.) को सजिगहेका व्यापार में प्रविष्ट होते हैं और पूजा व अभिषेक के योग्य द्रव्य लेकर देवदेवियों के साथ जिनभवन को जाते हैं । ( २२८-२६) । वहाँ पहुंच कर देवियों के साथ बिनीत भाव से प्रदक्षिणापूर्वक जिनप्रतिमाओं का दर्शन कर जय-जय शब्द करते हैं, स्तोत्र पढ़ते हैं और मन्त्रोच्चारणपूर्वक जिनाभिषेक करते हैं । (२३००२३३)
अभिषेक के बाद उत्तम पटह, शङ्क, मृदंग, घण्टा एवं काहलादि बजाते हुए ( गा० २३४) वे दिव्य देव भारी, कलश, दर्पण, तीनछत्र और चामरादि से, उत्तम जलधाराओं से, सुगन्धित गोशोर मलयचन्दन और केशर के पंकों से, अखण्डित तन्दुलों से, पुष्पमालाओं से, दिव्य नैवेद्यों से. उज्ज्वल रत्नमयी दीपकों से, धूप से और पके हुए कटहल, केला, दाडिम एवं दाल आदि फलों से (प्रष्ट द्रव्य से ) जिन पूजा करते हैं । ( २३५-२३८ ) पूजा के अन्त में अप्सरानों से संयुक्त होकर नाटक करते हैं और फिर निजभवनों में जाकर अनेक सुखों का उपभोग करते हैं ( २३६-२५०)।
अविरत सम्पष्टि देव तो समस्त कर्मों के क्षय करने में अद्वितीय कारण समझ कर नित्य ही अनन्तगुनी विशुद्धिपूर्वक जिनपूजा करते हैं किन्तु मिथ्यादृष्टि देव भी पुराने देवों के उपदेश से जिनप्रतिमाओं को कुलाधिदेवता मान कर नित्य ही नियम से भक्तिपूर्वक उनकी पूजा करते हैं । (२४०-२४१)
गाथा २५१-२५२ में आचार्यश्री ने भवनवासियों में सम्यक्त्वग्रहण के कारणों का निर्देश किया है और गा० २५३-५४ में भवनवासियों में उत्पत्ति के कारण बतलाते हुए लिखा है-"जो कोई प्रज्ञान तप से युक्त होकर शरीर में नाना प्रकार के कष्ट उत्पन्न करते हैं तथा जो पापी सम्यग्ज्ञान से युक्त तप को ग्रहण करके भी दुष्टः विषयों में आसक्त होकर जला करते हैं, वे सब विशुद्ध लेश्याओं से पूर्व में देवायु बांधकर पश्चात् क्रोधादि कषायों द्वारा उस आयु का घात करते हुए सम्यक्स्वरूप सम्पत्ति से मन को हटा कर भवनवासियों में उत्पन्न होते हैं।" (गा० ५३.५४ )
गाथा २५५ में सुमतिनाथ भगवान को नमस्कार कर अधिकार की समाप्ति की गई है।