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तिलोयपण्णत्ती
[ गाथा : ४.७ अर्थ :-पांच महावतोस उन्नत, तत्कालीन स्वसमय और परममय स्वरूप श्रुतधारा ( में निमग्न रहने ) वाले और नाना-गुरणोंके समूहमे परिपूरित प्राचार्यगरा मेरे लिए आनन्द प्रदान करें ॥३॥
उपाध्याय -स्तवन अण्णाण-घोर-तिमिरे' दुरंत-तीरम्हि हिंडमाणाणं ।
भवियाणुज्जोययरा' उवज्झया वर-मदि देंतु ॥४॥
अर्थ :-दुर्गम-तीरवाले प्रज्ञानके गहन-अन्धकारमें भटकते हुए भव्य जीवोंके लिए ज्ञानरूपी प्रकाश प्रदान करनेवाल उपाध्याय-परमेष्ठी उत्कृष्ट बुद्धि प्रदान करें ॥४॥
साधु-स्तवन थिर-धरिय-सोलमाला ययगय-राया जसोह-पउहत्था ।
बहु-विषय-भूसियंगा सुहाई साहू पयच्छतु ॥५॥
अर्थ :- शीलवतोंकी मालाको दृढ़तापूर्वक धारण-करनेवाले, रागसे रहित, यश-समूहसे परिपूर्ण और विविध प्रकारके विनयसे विभूषित अङ्गवाले साधु ( परमेष्ठी) सुख प्रदान करें ||५||
ग्रन्थ रचना-प्रतिज्ञा एवं वर-पंचगुरू तियररण-सुद्ध ण णमंसिऊरणाह' ।
भव-जणारा पदीचं वोच्छामि सिलोयपत्ति ॥६॥
अर्थ :-इस प्रकार मैं ( यतिवृषभाचार्य) तीन-करण ( मन, वचन, काय) की शुद्धिपूर्वक श्रेष्ठ पञ्चपरमेष्टियोंको नमस्कार करके भव्य-जनोंके लिए प्रदीप-तुल्य "त्रिलोक-प्रज्ञप्ति" ग्रन्थका कथन करता हूं ।।६।।
ग्रन्थ के प्रारम्भमें करने योग्य छह कार्य मंगल-कारण-हेदू सत्थस्स पमाण-णाम कत्तारा । पढम चिय कहिदव्वा एसा पाइरिय-परिभासा ॥७॥
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४. म. ज. ठ, सिलामाला ।
१ द. तिमिरं, ब. तिमिर । २. द. गुज्जोवयरा। २. द. वितु। ५. द. ज. ल. सुहाद। ६. द. क. रामसिऊणाहं।