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गाथा : १२३-१२७ ]
तदियो महाहिमारी
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अर्थ : सर्व असुरकुमार ( शरीर से ) कृष्णवर्ण, नागकुमार कालश्यामल, गरुड़कुमार एवं द्वीपकुमार श्यामलवर्ण वाले होते हैं । सम्पूर्ण उदधिकुमार तथा स्तनितकुमार कालश्यामल वर्णवाले, विद्यत्कुमार बिजली के सदृश और दिक्कुमार श्यामल वर्णवाले होते हैं । सब अग्निकुमार जलती हुई अग्निकी ज्वाला सदृश कान्तिको धारण करनेवाले तथा बातकुमार देव नवीन कुवलय ( नील कमल ) की सदृशता वाले जानने चाहिए ।। १२०-१२२ ॥
असुरकुमार श्रादि देवोंका गमन
पंचसु कल्लाणेसु जिरिंगद-पडिमाण पूजा - णिमित्तं । गंदीसम्म दोबे इंदादी जांन्ति भत्तोए ॥१२३॥
अर्थ :- भक्ति से युक्त सभी इन्द्र पंचकल्याणकों के निमित्त ( ढ़ाई द्वीप में ) तथा जिनेन्द्रप्रतिमाओंकी पूजन के निमित्त नन्दीश्वर द्वीपमें जाते हैं ||१२३ ||
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पूजप- हेदु
सीलादि-संजुवाणं परिवखण-रिणमित्तं रियमि-कीडण - कज्जे वइरि-समूहस्स मारपिच्छाए' ॥ १२४ ॥
असुर-पहुदी गदी उड़द-सरूवेण जाव ईसाणं । णिय-बसदो पर वसदो चुद कप्पायही होबि ।। १२५ ।।
अर्थ :- शीलादिकसे संयुक्त किन्हीं मुनिवरादिककी पूजन एवं परीक्षा के निमित्त अपनीअपनी क्रीडा करने के लिए अथवा शत्रु समूहको नष्ट करनेकी इच्छासे असुरकुमारादिक देवोंकी गति ऊर्ध्वं रूपसे अपने वश ( अन्यको सहायता के बिना ) ईशान स्वर्ग - पर्यन्त और दूसरे देवोंकी सहायता से प्रच्युत स्वर्ग पर्यन्त होती है ।। १२४-१२५ ।।
भवनवासी देव-देवियोंके शरीर एवं स्वभावादिकका निरूपण
करणयं व णिरुवलेवा णिम्मल-कंती सुगंध - णिस्सासा | froaमय रूपरेखा समचउरस्संग-संठाणा
लक्खण- वंजरण- जुत्ता, णिच्चं चेय कुमारा
१. द. मारखिट्टाए ।
॥ १२६॥
संपुष्णमियंक - सुन्दर - महाभा । देवा देवी प्रो तारिसया ॥१२७॥