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विशेष ध्यान रखने योग्य :
___ यों तो इस अधिकार में कुल २५४ गाथाएं ही हैं। परन्तु भूल से 'गाथा सं. ६४' क्रम में किस होने से ग्रह नाई है पार्थात् माथा संख्या ६३ के बाद गाथा संख्या ६५ अंकित कर दिया गया है ( गाथा नहीं छूटी है केवल क्रम संख्या ६४ छूट गई है।) और यह भूल अधिकार के अन्त तक चलती रही है जिससे २५४ गाथाओं के स्थान पर कुल गाथाएँ
२५५ अंकित हुई है। इसी क्रम संख्या को मानने से सारे सन्दर्भ आदि भी इसी प्रकार । दिए गये हैं । अतः पाठकों से अनुरोध है कि वे इस भूल को ध्यान में रखते हुए गाथा सं० A६३ को ही ६३-६४ समझे ताकि अन्य सन्दर्मों में भ्रान्ति न हो तथापि अधिकार में कुल । - २५४ गाथायें ही माने ।
इस बड़ी भूल के लिए हम विशेष क्षमाप्रार्थी हैं।
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इस तीसरे महाधिकार में कुल २५५ पद्य हैं। इनमें दो इन्द्रवज्रा ( छ. सं. २४०, २५३ ) और ४ उपजाति ( २१५-१६, २४१, २५४ ) तथा शेष गाथा छन्द हैं। पूर्व प्रकाशित ( सोलापुर) प्रति के तीसरे अधिकार से प्रस्तुत संस्करण के इस तीसरे अधिकार में गाथा सं० १०७, १८६-१८७, २०२, २२२ से २२७ तथा २३२-२३३ इस प्रकार कुल १२ गाथाएं मवीन हैं जिनसे प्रसंगानुकल विषय की पूर्ति हुई है और प्रवाह अवरुद्ध होने से बचा है। गाथा सं० १८६ और १५७ केवल मूलबिद्री की प्रति में मिली हैं अन्य प्रतियों में नहीं हैं । टीकाकी माताजी ने इस अधिकार को एक चित्र और ७ सारणियों । तालिकाओं से अलंकृत किया है। गाथा सं. ३६ में कल्पवृक्षों को जीवों की उत्पत्ति एवं विनाश का कारण कहा है, यह मन्तव्य बड़े प्रयत्न से ही समझ में आया है।
इस महाधिकार में २४ अन्तराधिकार हैं । अधिकार के आरम्भ में (गाथा १ ) अभिनन्दन स्वामी को नमस्कार किया गया है और अन्त में (गाथा २५५) सुमतिनाय स्वामी को । गाथा २ से ६ में चौबीस अधिकारों का नाम निर्देश किया गया है। गाथा ७.८ में भवनवासियों के निवासक्षेत्र, गा. ६ में उनके भेद, गाथा १० में उनके चिह्न, ११-१२ में भवनों की संख्या, १३ में इन्द्रसंख्या व १४-१६ में उनके नाम, १७-१६ में दक्षिणेन्द्रों और उत्तरेन्द्रों का विभाग, २०-२३ में भवनों का वर्णन २४ में अल्पद्धिक, महद्धिक व मध्यमऋद्धिधारक देवों के भवनों का विस्तार, २५-२६ में भवनों का विस्तार एवं उनमें निवास करने वाले देवों का प्रमाण, २७-३८ में वेदी, ३९-४१ में कूट, ४२-५४ में जिनभवन, ५५-६१ में प्रासाद, ६२ से १४३ में इंद्रों की विभूति, १४४ में संख्या, १४५-१७६ में