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तिलोय पण्णत्ती
पठम दहहदारणं तत्तो प्रभितेय मंडव - गवाण । सिंहासट्टिदाणं एदाण सुरा कुरांति अभिसेयं ॥ २२६ ॥
[ गाथा : २२६-२३०
अर्थ :- सर्व प्रथम स्नान करके फिर अभिषेक मण्डपके लिए जाते हुए ( सद्योत्पन्न ) देवको सिंहासन पर बैठाकर ये ( ग्रन्य ) देव अभिषेक करते हैं ।। २२६ ॥
भूसणसालं पविसिय मउडाबि विभूसणाणि दिव्याई । गेण्यि विचित्त-वत्थं देवा कुच्वंति रोपत्थं ||२२७||
अर्थ :- फिर प्राभूषणशाला में प्रविष्ट होकर मुकुटादि दिव्य आभूषण ग्रहण करके अन्य देवगण प्रत्यन्त विचित्र ( सुन्दर ) वस्त्र लेकर उसका वस्त्र विन्यास करते हैं ।। २२७ ।।
नवजात देव द्वारा जिलाभिषेक एवं पूजन आदि
ततो यवसायपुरं पविसिय पूजाभिसेय-जोग्गाई । गहिव दवाई देवा देवीहि संजुत्ता ॥ २२८ ॥
पच्चिद-विचित्त- केदण-माला वर चमर- छ्स सोहिल्ला । रिब्भर - भक्ति-पसण्णा वच्चंते फूड - जिण - भवणं ॥ २२६॥
अर्थ :- पश्चात् स्नान आदि करके व्यवसायपुर में प्रवेश कर पूजा और अभिषेक के योग्य द्रव्य लेकर देव देवियों सहित झूलती हुई श्रद्भुत पताकाओं, मालाओं, उत्कृष्ट चमर और छत्रोंसे शोभायमान होकर प्रगाढ़ भक्तिसे प्रसन्न होते हुए वे नवजात देव कूटपर स्थित जिन भवनको जाते हैं ।। २२८-२२६।।
पाविय जि-पासादं वर-मंगल-तूर रइवहलबोला ।
देवा देवी सहिदा कुत्वंति पदाहिणं णमिदा ||२३०||
अर्थ :- उत्कृष्ट माङ्गलिक वाद्योंके रवसे परिपूर्ण जिन भवनको प्राप्तकर वे देव, देवियों के साथ नमस्कार पूर्वक प्रदक्षिणा करते हैं ||२३०||
१. द. क. ततो वसाय । २. द. ब. फ. ज. उ. हि ।