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गाथा : २३१-२३७ ] तदियो महाहियारो
सौहासण-छत्त-तय-भामंडल-चामरादि-चारूपो । बठूण जिणप्पडिमा जय-जय-सद्दा पकुवंति ॥२३१॥ योदूण थुदि-सएहि विचित्त-चित्तावली णिबद्ध हि । तत्तो जिणाभिसेए भत्तीए कुणंति उज्जोगं ॥२३२॥ खोरोवहि जल-पूरिद मणिमय-कलि मड-सहस्सेहिं ।
मंसुग्घोसणमुहला जिणाभिसेयं पकुव्यंति ॥२३३ ।।
मर्थ :---( जिनमन्दिरमें ) सिंहासन, तीन छत्र, भामण्डल और चमर प्रादि ( पाठ प्रातिहार्यों ) से सुशोभित जिनेन्द्र मूर्तियोंका दर्शनकर जय-जय शब्द करते हैं, फिर विचित्र अर्थात् सुन्दर मनमोहक शब्दावली में निबद्ध अनेक स्तोत्रोंने स्तुति करके भक्ति सहित जिनेन्द्र भगवानका अभिषेक करनेका उद्योग करते हैं। क्षीरोदधिके जलसे परिपूर्ण १००८ मणिमय घटोंसे मन्त्रोच्चारण पूर्वक जिनेन्द्र भगवानका अभिषेक करते हैं ।।२३१-२३३।।
पडु-पडह-संख-मद्दल-जयघंटा काहलादि बज्जेहिं ।
वाइज्जते हि सुरा जिणिव-पूजा पकुवंति ॥२३४।।
अर्थ :-(पश्चात् ) वे देव उत्तम पटह, शङ्ख, मृदङ्ग जयघण्टा एवं काहलादि बाजोंको बजाते हुए जिनेन्द्र भगवानको पूजा करते हैं ।।२३४।। भिगार-कलस-इप्पण-छत्तत्तय-चमर-पहुवि-
विहिं। पूजंति 'फलिय-दंडोवमाण-वर-वारि-धारहिं ॥२३५॥
गोसीस-मलय-चंदण-कुंकुम-पंकेहि परिमलिल्लेहि । मुत्ताफलुज्जलेहि सालीए तंवलेहिं 'सयलेहि ॥२३६॥
बर-विविह-कुसुम-माला-सएहि दूरंग-मत्तांधेहिं । प्रमियादो महुरेहिं गाणाविह-विश्व-भोहिं ॥२३७॥
१. ६. ब, क. ज. ठ. पलिह ।
२. द. सालेहि ।