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तदिश्नो महाहियारो
कोहेण लोहेण भयंकरेण माया-पवचेण समच्छरेण । माणेण 'वड्ढत महाविमोहो मेल्लाविदोहं जिणरगाह - लिंगं ।। २२१ ॥
गाथा : २२१-२२५ ]
अर्थ :- भयंकर क्रोध, लोभ और मात्सर्यभावसहित माया-प्रपंच एवं मानसे वृद्धिगत ज्ञानभावको प्राप्त हुआ मैं जिनेन्द्र-लिंगको छोड़े रहा ||२२१॥
एवेति वोह सति
णिवाण- फलम्हि विग्धं । तुच्छं फलं संपड़ जादमेदं एवं मणे वड्डिद तिथ्य - दुक्खं ।। २२२||
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अर्थ :- ऐसे दोषों तथा संक्लेशोंके कारण, निर्धारण के फलमें विघ्न डालकर मैंने यह तुच्छफल ( देव पर्याय ) प्राप्त कर तीव्र दुःखोंको बढ़ा लिया है; मैं ऐसा मानता हूं ||२२२||
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बुरंत संसार विणास हेदु रिव्याण-मम्मि परं पदी गेम्हंति सम्मत्तमत- सोक्खं संपादिणं इंडिय-मिच्छ - भावं ॥२२३॥
अर्थ :- (वे देव उसी समय ) मिथ्यात्वभावको छोड़कर दुरन्त संसारके विनाश के कारणभूत, निर्वाण मार्ग में परम प्रदीप, अनन्त सौख्यके सम्पादन करने वाले सम्यक्त्वको ग्रहण करते हैं ||२२३||
तादो देवी- णिवही प्राणंदेणं महाविभूदीए । सेसं भरति ताणं सम्मसग्गहण - तुट्टाणं ॥ २२४।।
अर्थ :- तब महाविभूतिरूप प्रानन्दके द्वारा देवियोंके समूह और शेष देव, उन देवोंके सम्यक्त्व ग्रहणसे संतुष्टिको प्राप्त होते हैं ||२२४।।
जिणपूजा - उज्जोगं कुणंति केई महाविसोहीए । केई पुयिल्लाणं देवाण पबोहण-वसेण ॥ २२५॥ |
श्चर्य :-कोई पहले से वहां उपस्थित देवोंके प्रबोधन के वशीभूत हुए ( परिणामों की महाविशुद्धि पूर्वक जिन पूजाका उद्योग करते हैं ।। २२४ ||
१. द. पत्ते ण । २. द. ब. क्र. ज. ठ. बंदंत ।