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तिलोयपण्णत्ती
गिरि-कटक ऊर्ध्वलोकका घनफल
छप्पण्ण-हिदो लोश्रो एक्कस्सि 'गिरिगडम्मि विदफलं । तं चउवसप्पहदं सत्त-हिदो ति-गुरिपवो लोभो ॥ २६६ ॥
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[ गाथा: २६६-२७०
अर्थ :- एक गिरि-कटकका घनफल छप्पनसे भाजित लोकप्रमारण है । इसको चौबीस से गुणा करनेपर सातसे भाजित और तीन से गुरिणत लोकप्रमारग सम्पूर्ण गिरि-कटक क्षेत्रका घनफल आता है || २६६||
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विशेषार्थ :- उपर्युक्त प्रकृति में १४ गिरि और १० कटक बने हैं, जिसमें से प्रत्येक गिरि एवं कटककी भूमि १ राजू, मुख, उत्सेध राजू और वेध ७ राजू है, यतः [ ( १+०) - 4 | × धनराजू वनफल एकं गिरि या एक कटककर है। लोकको ५६ से भाजित करनेपर भी ( ) हो प्राप्त होता है, इसलिए गाथामें एक गिरि या कटकका घनफल छप्पनसे भाजित लोकप्रमाण कहा है । क्योंकि एक गिरिका घनफल धनराजू है अतः १४ गिरिका (x)=
३४३ अर्थात् =५ घनराजू घनफल हुआ ।
इसीप्रकार जब एक कटकका घनफल
धनराजू है अतः १० कटकोंका (x)३४५ अर्थात् ६१४ घनराजू घनफल हुआ। इन दोनोंका योगकर देनेपर ( ८५१ + ६११ ) = १४७ धनराजू घनफल सम्पूर्ण गिरिकंटक ऊर्ध्वलोकका प्राप्त होता है । लोक (३४३) को ७ से भाजितकर तीन से गुणा करनेपर भी ( २४३ ÷ ७ = ४६ ) x ३ = १४७ घनराजू ही आते हैं. इसीलिए गाथामें सात से भाजित और तीन से गुणित लोकप्रमाण सम्पूर्ण गिरिकटंक क्षेत्रका घनफल कहा गया है ।
वातवलय के प्रकार कहने की प्रतिज्ञा
- विहणं साहिय सामगं हेट्ठ उड्ढ होदि जयं ।
एहि साहेमि पुढं संठाणं वादवलयाणं ॥ २७० ॥
१. ज. क. ठ. गिरिगदम्मि ।
अर्थ : – सामान्य, अधः और ऊर्ध्वके भेदसे जो तीनप्रकारका जग अर्थात् लोक कहा गया
है, उसे आठप्रकारसे कहकर अब वातवलयोंके पृथक्-पृथक् ग्राकारका वर्णन करता हूं ॥ २७० ॥ |