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तिलोयपण्यात्ती
[ गाथा : २७७-२७६ एक राजू पर होने वाली हानि-वृद्धिका प्रमाण तिरियक्खेत्तप्पणिधि गवस्स पवणत्तयस्स बहलत्तं । मेलिय 'सत्तम-पुढवी-पणिधीगय-मरुद-बहलम्मि ॥२७७।। तं सोधिदूण तत्तो भजिदव्यं छप्पमाण-रज्जूहि । लद्ध पडिप्पदेसं जायंत हाणि-वड्ढीओ ॥२७८।।
। १६ । १२ ।। प्रर्थ : –तिर्यक्ोत्र ( मध्यलोक ) के पार्श्वभागमें स्थित तीनों वायुनोंके बाहल्यको मिलाकर जो योगफल प्राप्त हो, उसको सातवीं पृथिवीके पार्श्वभागमें स्थित बायुनोंके बाहल्यमेंसे घटाकर शेपमें छह प्रमाण राजुनोंका भाग देनेपर जो लब्ध पावे उतनी सातवीं पृथिवीसे लेकर मध्यलोक पर्यन्त प्रत्येक प्रदेश क्रमशः एक राजूपर बायुकी हानि और वृद्धि होती है ॥२७७-२७८।।
विशेषार्थ :-सप्तम पृथिवीके निकट तीनों पवनोंका बाहल्य (५+५+ ४ )=१६ योजन है, यह भूमि है। तथा तिर्यग्लोकके निकट (५+४+३) १२ योजन है, यह मुख है । भूमिमेंसे मुख घटानेपर ( १६ – १२)=४ योजन अवशेष रहे । सातवीं पृथिवीसे तिर्यग्लोक ६ राजू ऊँचा है, अतः अवशेष रहे ४ योजनोंमें ६ का भाग देनेपर ३ योजन प्रतिप्रदेश क्रमश: एक राजूपर होने वाली हानिका प्रमाण प्राप्त हुआ ।
पार्वभागोंमें वातवलयोंका बाहल्य अट्ठ-छ-चउ-दुगदेयं तालं तालट्ठ-तीस-छत्तीसं । तिय-भजिदा हेट्ठादो मर-अहलं सयल-पासेसु ॥२७६॥
। । । । । । अर्थ :- अड़तालीस, छयालीस, चवालीस, बयालीस, चालीस, अड़तीस और छत्तीसमें तोनका भाग देनेपर जो लब्ध प्राबे, उतना क्रमशः नीचेसे लेकर सब ( सात पुथ्वियोंके ) पार्श्वभागोंमें बातवलयोंका बाहल्य है ।।२७६।।
१. द.ब. क. ज. ठ ममपोदवी ।
२. द. १२।४।१०ज., १२१४१७ । क. १२१४१६।