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माताजी सम्पुर्ण लेखनकार्य स्वयं अपने हाथ से ही करती हैं--न कभी एक अक्षर टाइप करवाती हैं
और न किसी से लिखवाती हैं। सम्पूर्ण संशोधन-परिष्कारों को भी फिर हाथ से ही लिखकर संयुक्त करती हैं। मैं प्रायः सोचा करता हूं कि धन्य हैं ये जो ( आहार में ) इतना अल्प लेकर भी कितना अधिक नही। इनकी देव भिरकाल तक समाज को समुपलब्ध रहेगी। इस महान् कृति की टीका के अतिरिक्त पूर्व में आप 'त्रिलोकसार' और 'सिद्धान्तसार दीपक' जैसे बृहत्काय ग्रंथों की टीका भी कर चुकी हैं और लगभग १०-१२ सम्पादित एवं मौलिक लघु कृतियां भी आपने प्रस्तुत की हैं।
मैं एक अल्पज्ञ श्रावक हूं-अधिक पढ़ा लिखा भी नहीं हूं किन्तु पूर्व पुण्योदय से जो मुझे यह पवित्र समागम प्राप्त हुआ है इसे मैं साक्षात् सरस्वती का ही समागम समझता हूं। जिन ग्रंथों के नाम भी मैंने कभी नहीं सुने थे उनकी सेवा का सुअवसर मुझे पूज्य माताजी के माध्यम से प्राप्त हो रहा है, यह मेरे महान् पुण्य का फल तो है ही किन्तु इसमें आपका अनुग्रहपूर्ण वात्सल्य भी कम नहीं।
जैसे काष्ठ में लगी लोहे की कील स्वयं भी सर जाती है और दूसरों को भी तरने में सहायक होती है, उसी प्रकार सतत ज्ञानाराधना में संलग्न पूज्य माताजी भी मेरी दृष्टि में तरह-तारण हैं। आपके सान्निध्य से मैं भी ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय का सामर्थ्य प्राप्त करू', यही भावना है ।
में पूज्य माताजी के स्वस्थ एवं दीर्घजीवन की कामना करता हूं।
विनीत4. कजोड़ीमल कामबार, जोबनेर
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