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अपनी बात
जीवन में परिस्थितिजन्य अनुकूलता-प्रतिकूलता तो चलती ही रहती है परन्तु प्रतिकूल परिस्थितियों में भी उनका अधिकाधिक सदुपयोग कर लेना विशिष्ट प्रतिभानों की ही विशेषता है। 'तिलोयपण्णत्तो' के प्रस्तुत संस्करण को अपने वर्तमान रूप में प्रस्तुत करने वाली विदुषा आर्यिका पूज्य १०५ श्री विशुद्धमती माताजी भी उन्हीं प्रतिभाओं में से एक हैं ! जून १९५१ में सीढ़ियों से गिर जाने के कारण आपको उदयपुर में ठहरना पड़ा और तभी ति० प० की टीका का काम प्रारम्भ हुआ । काम सहज नहीं था परन्तु बुद्धि पौर श्रम मिलकर क्या नहीं कर सकते । साधन और सहयोग संकेत मिलते ही जुटने लगे । अनेक हस्तलिखित प्रतियां तथा उनकी फोटो स्टेट कॉपियाँ मंगवाने की व्यवस्था की गई । कनड़ की प्राचीन प्रतियों को भी पाठभेद व लिप्यन्तरण के माध्यम से प्राप्त किया गया। डा. उदयचन्दजी जैन ( सहायक आचार्य, जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग, सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर ) से प्रतियों के पाठभेद ग्रहण करने में तथा प्राकृतभाषा एवं व्याकरण सम्बन्धी संशोधनों में सहयोग मिला। इस प्रकार प्रथम चार महाधिकारों की पाण्डुलिपि तैयार करने में ही अब तक लगभग १३,०००) रुपये व्यय हो चुके हैं । 'सेठी ट्रस्ट' लखनऊ से यह आर्थिक सहयोग प्राप्त हुमा और महासभा ने इसके प्रकाशन का उत्तरदायित्व वहन किया । श्रीमान् नीरजजी और निर्मल जी जैन ने सतना से प्रेसकापी हेतु न केवल कागज भेजा अपितु वे कई बार प्रत्यक्ष रूप से भी और पत्रों के माध्यम से भी सतत प्रेरणात्मक सहयोग देते रहे। डा० चेतनप्रकाशजी पाटनी ने सम्पादन का गुरुतर भार संभाला और अनेक रूपों में उनका सक्रिय सहयोग प्राप्त हुआ । यह सब पूज्य माताजी के पुरुषार्थ का ही सुपरिणाम है । पूज्य माताजी "यथानाम तथा गुरण' के अनुसार विशुद्धमति को धारण करने वाली हैं तभी तो गणित के इस जटिल ग्रंथ का प्रस्तुत सरल रूप हमें प्राप्त हो सका है ।
पांवों में चोट लगने के बाद से पूज्य माताजी प्रायः स्वस्थ नहीं रहती तथापि अभीक्षाज्ञानोपयोग प्रवृत्ति से कभी विरत नहीं होती। सतत परिश्रम करते रहना आपकी अनुपम विशेषता है। आज से ८ वर्ष पूर्व में माताजी के सम्पर्क में आया था और यह मेरा सौभाग्य है कि तबसे मुझे पूज्य माताजी का अनवरत सान्निध्य प्राप्त रहा है। माताजी की श्रमशीलता का अनुमान मुझ जैसा कोई उनके निकट रहने वाला व्यक्ति ही कर सकता है। आज उपलब्ध सभी साधनों के बावजूद