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श्राद्यमिताक्षर
जैनधर्मं सम्यक् श्रद्धा, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र परक धर्म है इस धर्म के प्रणेता रहंतदेव हैं । जो वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी होते हैं। इनकी दिव्य वाणी से प्रवाहित तत्त्वों की संज्ञा श्रागम है । इन्हीं समीचीन तत्त्वों के स्वरूप का प्रसार-प्रचार एवं आचरण करने वाले आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी सच्चे गुरु हैं ।
वर्तमान में जितना भी आगम उपलब्ध है वह सब हमारे निर्ग्रन्थ गुरुनों की अनुकम्पा एवं धर्म वात्सल्य का ही फल है । यह आगम प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के नाम से चार भेदों में विभाजित है ।
'त्रिलोकसार' ग्रंथ के संस्कृत टीकाकार श्रीमन्माधवचन्द्राचार्य त्रैविद्य देव ने कररणानुयोग के विषय में कहा है कि - "तदर्थं - ज्ञान-विज्ञान सम्पन्न - पापवयं भीरुगुरु- पर्वक्रमेाव्युच्छिनतया प्रवर्तमानमविनष्ट सूत्रार्थत्वेन केवलज्ञान-समानं करणानुयोग नामानं परमागमं | अर्थात् जिस अर्थका निरूपण श्री वीतराग सर्वंश वर्षमान स्वामी ने किया था। उसी अर्थ के विद्यमान रहने से वह करणानुयोग परमागम केवलज्ञान के समान है ।
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आचार्य यतिवृषभ ने भी तिलोय पण्णत्ती के प्रथमाधिकार की गाथा ८६-८७ में कहा है कि- "पवाह रूवत्तणेण.......माइरियअणुक्क माबाद तिलोयपण्पत्ति अहं वोच्छामि.........” । अर्थात् आचार्य परम्परा से प्रवाह रूप में आये हुए 'त्रिलोक प्रज्ञप्ति' शास्त्र को मैं कहता हूं। इसी प्रकार प्रथमाधिकार की गाथा १४८ में भी कहा है कि - "भणामो णिस्संदं दिट्टिवादादो" अर्थात् मैं वैसा ही वर्णन करता हूं, जैसा कि दृष्टिवाद अंग से निकला है ।
आचार्यों की इस वाणी से ग्रन्थ की प्रामाणिकता निर्विवाद सिद्ध है ।
बीजारोपण - सन् १९७२ सं० २०२६ आसोज कु० १३ गुरुवार को अजमेर नगर स्थित छोटे धड़ा की नशियाँ में त्रिलोकसार ग्रंथ की टीका प्रारम्भ कर सं० २०३० ज्येष्ठ शुक्ला शुक्रवार को जयपुर खानियों में पूर्ण हो चुकी थी। ग्रंथ का विमोचन भी सन् १९७४ में हो चुका था । पश्चात् सन् १९७५ के जून माह में परम पूज्य परमोपकारी शिक्षा गुरु आ० क० १०८ श्री श्रुतसागरजी एवं प० ० परम श्रद्धेय विद्यागुरु १०८ श्री अजितसागर म० जी के सान्निध्य में तिलोयपण्णत्ती