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ग्रन्थराज का स्वाध्याय प्रारम्भ किया किन्तु १५० गाथा के बाद जगह जगह शंकाएँ उत्पन्न होने लगीं तथा उनके समाधान न होने के कारण स्वाध्याय में नीरसता श्रा गई । फलस्वरूप आत्मा में निरन्तर यही खरोंच लगती रहती कि त्रिलोकसार जैसे ग्रन्थ की टीका करने के बाद तिलोय प० का प्रमेय शेय नहीं बन पा रहा......
उसी वर्ष (सन् १९७५ में ) सवाईमाधोपुर में ससंघ वर्षायोग हो रहा था । कररणानुयोग के प्रकाण्ड विद्वान सिद्धान्त भूषण स्व० पं० रतनचन्दजी मुख्तार सहारनपुर वाले सिद्धांतसार दीपक की पाण्डुलिपि देखने हेतु प्राये । हृदय स्थित शल्य की चर्चा पण्डितजी से की । आपने प्रथमाधिकार की गाथा नं० १४० १४५-४७, १६३, १६८, १६६, १७८-७९, १८०.१५१, १८४ से १६१, १६६-६७, २०० से २१२, २१४ से २३४, २३८ से २६६ तक का विषय स्पष्ट कर समझा दिया जिसे मैंने व्यवस्थित कर आकृतियों सहित नोट कर लिया। इसके पश्चात् सन् १९८१ तक इसकी कोई चर्चा नहीं उठी । कभी कभी मन में अवश्य यह बात उठती रहती कि यदि ये ८३ गाथाएं प्रकाशित हो जावें तो स्वाध्याय प्रेमियों को प्रचुर लाभ हो सकता है । यह बात सन् १९७७ में जीवराज ग्रंथमाला को भी लिखाई थी कि यदि आप तिलोयपण्णत्ती का पुनः प्रकाशन करावें तो प्रथमाधिकार की कुछ गाथाओं का गणित हम उसमें देना चाहते हैं ।
अंकुरारोपण - श्रीमान् धर्मनिष्ठ मोहनलालजी शांतिलालजी भोजन ने उदयपुर में स्वमव्य से श्री महावीर जिन मन्दिर का निर्माण कराया था। जिसकी प्रतिष्ठा हेतु वे मुझे उदयपुर लाये । सन् १९८१ में प्रतिष्ठा कार्य विशाल संघ के सान्निध्य में सानन्द सम्पन्न हुआ । पश्चात् वर्षायोग के लिए अन्यत्र विहार होने वाला था किन्तु श्रनायास सीढ़ियों से गिर जाने के कारण दोनों पैरों की हड्डियों में खराबी हो गई और चातुर्मास संसंघ उदयपुर ही हुआ । एक दिन तिलोयपण्णत्ती की पुरानी फाइल अनायास हाथ में आ गई । उन गाथानों को देखकर विकल्प उठा कि जैसे अचानक पैर पंगु हो गये हैं उसी प्रकार एक दिन ये प्राण पखेरु उड़ जायेंगे और यह फाइल बन्द ही पड़ी रहेगी । अतः इन गाथाओं सहित प्रथमाधिकार के गणित का कुछ विशेष खुलासा कर प्रकाशित करा देना चाहिए। उसी समय श्रीमान् पं० पन्नालालजी को सागर पत्र दिलाया। श्री पण्डित सा० का प्रेरणाप्रद उत्तर आया कि आपको पूरे ग्रन्थ की टीका करनी हैं। श्री धर्मचन्द्रजी शास्त्री भी पीछे पड़ गये । इसी बीच श्री निर्मलकुमारजी सेठी संघ के दर्शनार्थ यहाँ आये । श्राप से मेरा परिचय प्रथम ही था । दो-ढाई घण्टे अनेक महत्वपूर्ण चर्चाएं हुईं। इसी बीच आपने कहा कि इस समय आपका लेखन कार्य क्या चल रहा है । मैंने कहा लेखन कार्य प्रारम्भ करने की प्रेरणा बहुत प्राप्त हो रही है किन्तु कार्य प्रारम्भ करने का भाव नहीं है। कारण पूछे जाने पर मैंने कहा कि ग्रन्थ लेखनादि के कार्यों में संलग्न रहना साधु का परम कर्तव्य है किन्तु उसकी व्यवस्था आदि के व्यय की जो आकुलता एवं याचना