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पढमो महाहियारो
प्र. अं. ४; ज. प्र. = ; घ. अं. ६) घ. लो. = | उ राजू है ।
गाथा १३३-१३४ ]
|| इसप्रकार परिभाषाका कथन समाप्त हुआ ।।
विशेषार्थ : - गाथा १३१ और १३२ में सूच्यंगुल, प्रतरांगुल और घनांगुल तथा जगच्छ्छ्र ेणी, जगत्प्रतर श्रौर लोक एवं राजूकी परिभाषाएँ कही गई हैं । अंकसंदृष्टिमें - मानलो, श्रद्धापल्यका प्रमारण १६ है । इसके अर्धच्छेद ४ हुए ( विवक्षित राशिको जितनी बार आधा करते-करते एकका अंक रह जाय उतने उस राशिके अर्धच्छेद कहलाते हैं । जैसे १६ को ४ बार प्राधा करनेपर एक अंक रहता है, अतः १६ के ४ अर्धच्छेद हुए ) । श्रतः चार बार पत्य ( १६ १६ १६ × १६) का परस्पर गुणा करनेसे सूच्यंगुल ( ६५ = अर्थात ६५५३६ ) प्राप्त हुआ । इस सूच्यंगुलके वर्ग ( ४२ =अर्थात् ६५५३६ x ६५५३६ ) को प्रतरांगुल तथा सूच्यंगुल के घन ( ६५५३६४६५५३६× ६५५३६ या ( ६५५३६ ) २६५५३६ = ( ६५५३६ ) ३ को घनांगुल कहते हैं ।
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मानलो श्रद्धापल्यका प्रमाण १६, धनांगुलका प्रमाण (६५५३६) ३ और प्रसंख्यातका प्रमाण २ है | अतः पल्य (१६) के अर्धच्छेद ४२ (प्रसंख्यात) = लब्ध २ भाया, इसलिए दो बार चनांगुलों { (६५५३६) * x (६५५३६) ३ } का परस्पर गुणा करनेसे जगच्छ्र ेणी प्राप्त होती है । जगच्छ गोके वर्गको जगत्प्रतर और जगच्छ पीके घनको लोक कहते हैं । जगच्छ शी (६५५३६४ × ६५५३६*) के सातवें भाग को राजू कहते हैं । यथा - जगच्छ्रणी = राजू । लोकाकाशके लक्षण
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प्रादि- हिरण हीरणो पर्याड सरुवेण एस संजादो ! जीवाजीव-समिद्धो 'सव्वण्हावलोइलो लोश्रो ।। १३३ ।।
अर्थ :---सर्वज्ञ भगवान् से अवलोकित यह लोक, प्रादि और अन्तसे रहित अर्थात् अनाद्यनन्त है, स्वभावसे ही उत्पन्न हुआ है और जीव एवं प्रजीव द्रव्योंसे व्याप्त है ।। १३३ ।। धम्माधम्म-रिणबद्धा "गदिरगदी जीव-योग्गलारगं च ।
जेत्तिय - मेत्ता प्रासे लोयाप्रासो स गादन्यो ॥१३४॥
अर्थ :- जितने श्राकाशमें धर्म और अधर्म द्रव्यके निमित्तसे होनेवाली जीव और पुद्गलोंकी गति एवं स्थिति हो, उसे लोकाकाश समझना चाहिए || १३४ ||
१. द. क्र. ज. ठ. सव्वाहा वश्रववो, ब. सम्बरणहावलोयवो । २. द. व. गदिरागदि । ३. ६. ब. क. ज. मेत्ताप्रासो |