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तिलोयपत्ती
[ गाथा : १३१-१३२ अर्थ :-इन दसकोड़ाकोड़ी पल्योंका जितना प्रमाण हो उतना पृथक्-पृथक् एक सागरोपमका प्रमाण होता है । अर्थात् दसकोड़ाकोड़ी व्यवहार पल्योंका एक व्यवहार-सागरोपम, दसकोड़ाकोड़ो उद्धार-पल्योंका एक उद्धार-सागरोपम और दस-कोडाकोड़ी श्रद्धा-पल्योंका एक प्रद्धा-सागरोपम होता है ॥१३०।।
।। सागरोपमका वर्णन समाप्त हुआ ।।
सूच्यंगुल और जगच्छणीके लक्षण श्रद्धार-पल्ल-छेदे तस्सासंखेज्ज-भागमेत्ते य । पल्ल-घणंगुल-वग्गिव-संवग्गिदम्हि सूइ-अगसेढी ।।१३१॥
सू० २ । जग०-। प्रर्थ :-प्रद्धापल्यके जितने अर्धच्छेद हों उतनी जगह पल्य रखकर परस्पर गुणित करनेपर सुव्यंगुल प्राप्त होता है । अर्थात्
सुच्यंगुल - [अद्धापल्य] की घात [अद्धापल्यके अर्धच्छेद]; तथा श्रद्धापल्यको अर्धच्छेद राशिके असंख्यातवें भागप्रमाण धनांगुल रखकर उन्हें परस्परमें गुणित करनेसे जगच्छणी प्राप्त होती है । अर्थात्जगच्छु णी- [चनांगुल] की घात ( श्रद्धापल्य के अर्धच्छेद/असंख्यात ) ॥१३१॥
सू० अं० २ जगच्छणी
सूच्यंगुल आदिका तथा राजूका लक्षण तं वग्गे पदरंगुल-पदराइ-घणे घणंगुलं लोयो। जगसेढीए । सत्तम-भागो रज्जू पभासते ।।१३२॥
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।। एवं परिभासा गवा ॥ प्रर्थ :-उपर्युक्त सूच्यंगुलका वर्ग करनेपर प्रतरांगुल और जगच्छणीका वर्ग करनेपर जगत्प्रतर होता है । इसीप्रकार सूच्यंगुलका घन करनेपर घनांगुल और जगच्छ्रणीका घन करनेपर लोकका प्रमाण होता है ! जगच्छ रणीके सातवें भागप्रमाण राजूका प्रमाण कहा जाता है ।।१३२।।