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तिलोय पण्णत्ती
[ गाथा : २०३ २०५
पार्श्वभागों में इसप्रकार के चार त्रिभुज और चार ही चतुर्भुज हैं। इस गुणनफलमें असनालीका ( १४७ × ७ ) = ४६ घनराजू घनफल और मिला देनेपर सम्पूर्ण ऊर्ध्वलोकका घनफल प्राप्त हो जाता है । यथा -- + *='' x ४ = ६८ घनराजू आठ क्षेत्रोंका घनफल +४६ घनराजू त्रसनालीका घनफल = १४७ घनराजू सम्पूर्ण ऊर्ध्वलोकका घनफल प्राप्त होता है ।
यह घनफल तीन से गुणित और सातसे भाजित लोकप्रमाण मात्र है अर्थात् ३४३४३== १४७ घनराजू प्रमाण है ।
ऊर्ध्वलोकमें प्राठ क्षुद्र - भुजाओंका विस्तार एवं आकृति
सोहम्मीसारोवार छ रूचेय 'रज्जूउ सत्त-पविभत्ता । खुल्लय-भुजस्स रुदं इगिपासे होदि लोयस्स ॥२०३॥
४६ ६ ।
अर्थ :- सौधर्म और ईशान स्वर्गके ऊपर लोकके एक पार्श्वभाग में छोटी भुजाका विस्तार सातसे विभक्त छह ( 3 ) राजू प्रमाण है ।।२०३ ||
माहिद- उबरिमंते रज्जूम्रपंच होंति सत्त-हिंदा ।
"उणवण्ण-हिदा सेढी सत्त-गुणा बम्ह-परिधीए ॥ २०४ ॥
।
५ । ४७ ।
अर्थ :-- माहेन्द्रस्वर्गके ऊपर अन्त में सातसे भाजित पांच राजू और ब्रह्मस्वर्गके पास उनंचास से भाजित और सातसे गुणित जगच्छ पी प्रमाण छोटी भुजाका विस्तार है || २०४ ||
माहेन्द्र कल्प 3 राजू; ब्रह्मकल्प ज० श्रे० = ७ अर्थात् = = १ राजू ।
कापिट्ठ उवरिमंते रज्जूओ पंत्र होंति सप्त-हिदा ।
सुक्कस्स उयरिमंते सत्त-हिदा ति गुरिदो रज्जू ॥ २०५ ॥
। ४६५ ४ २ ।
अर्थ :- कापिष्ठ स्वर्गके ऊपर अन्तमें सालसे भाजित पाँच राजू, और शुक्र के ऊपर अन्त में सातसे भाजित और तीनसे गुणित राजू प्रमाण छोटी-भुजाका विस्तार है || २०५ || का०
रा० ;
शु० रा० ।
१. ६. छच्षेत्र रज्जुप्रो, ।
२. द. न. क. ज. ठ, मेत्तं । ३ द ज उपवण्ाहिदा रज्जु ।